चार आश्रम के नाम - आश्रम व्यवस्था

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 वैदिक संस्कृति: आश्रम व्यवस्था 


चार आश्रम के नाम - पुरूषार्थ


हिंदू धर्म की महत्वपूर्ण विशेषता है आश्रम व्यवस्था। आश्रम का अर्थ है श्रम करने के बाद विश्राम करना। एक हिंदू के जीवन को चार भागों में बांटकर उसे अलग-अलग आश्रमों से जोड़ा गया है। परंतु उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है चतुर्थ आश्रम (संन्यास ) अभी तक स्थापित नहीं हो पाया था। सर्वप्रथम जबालोपनिषद में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है। जबकि छांदोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों का।आश्रम के बारे में विधिवत् जानकारी धर्म सूत्रों से प्राप्त होती है। इन सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वोच्च माना जाता है, यह सभी वर्णों में प्रचलित था। चारो आश्रम क्रमशःइस प्रकार है- 


चार आश्रम के नाम 


ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष तक)

    

यह आश्रम मुख्यतःशिक्षा से संबंधित है। इस आश्रम में मनुष्य बौद्धिक विकास, ज्ञान तथा शिक्षा प्राप्त करता था। शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था, उपनयन संस्कार वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण बालक का 8 वर्ष पर, क्षत्रिय बालक का 11 वर्ष पर तथा वैश्य बालक का 12 वर्ष की अवस्था में होता था। 25 वर्ष की उम्र तक बालक शिक्षा प्राप्त करता था, परंतु बहुत से ब्रह्मचारी ऐसे भी होते थे जो जीवन-पर्यंत शिक्षा प्राप्त करते थे। वे कन्याएं जो आश्रम में रहकर जीवन भर शिक्षा प्राप्त करती थी ब्रह्मवादिनी कहलाती थी। 


गृहस्थ आश्रम (25 वर्ष से 50 वर्ष तक)

  

शिक्षा प्राप्त के पश्चात समावर्तन संस्कार गृहस्थ आश्रम में ही संपन्न होता था। इसके पश्चात ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। गृहस्थ आश्रम, सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है। यह सभी वर्णों में मान्य था। गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों (ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण) से मुक्ति पाता था। इसी आश्रम में पंच महायज्ञ (ब्रम्ह यज्ञ, ऋषि यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ) तथा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम,) का विधान भी इसी आश्रम में है।


वानप्रस्थ आश्रम( 50 से 75 वर्ष तक)

        

जब मनुष्य अपने पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों से मुक्ति पा लेता था, तब वह पारलौकिक जीवन के तरफ उन्मुख होता था। अत:   वानप्रस्थ आश्रम, भौतिक जीवन से मुक्ति का साधन था। परंतु अभी व्यक्ति का समाज से संबंध बना रहता था।


संन्यास आश्रम(75 वर्ष से 100 वर्ष तक)

    

सन्यास का अर्थ है- पूर्ण त्याग। अर्थात इसमें मनुष्य घर का पूर्ण त्याग कर देता था तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए वह घर एवं समाज से दूर चला जाता था।



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