वैदिक संस्कृति: सामाजिक जीवन

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वैदिक संस्कृति: सामाजिक जीवन 


नमस्कार दोस्तों! इस ब्लॉग में हम चर्चा करेंगे पूर्व वैदिक काल एवं उत्तर वैदिक काल के सामाजिक संरचना की।


र्व वैदिक काल एवं उत्तर वैदिक काल के सामाजिक संरचना की।


पूर्व वैदिक काल में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित था। परिवार को कुल या गृह कहा जाता था, परिवार के मुखिया को कुलपति या गृहपति कहा जाता था। पूर्व वैदिक काल में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। दो  प्रकार के विवाह  प्रचलन में थे- 

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अनुलोम विवाह


इसमें पुरुष उच्च वर्ण का तथा कन्या निम्न वर्ण की होती थी। 


प्रतिलोम विवाह


इसमें पुरुष निम्न वर्ण का तथा कन्या उच्च वर्ण की होती थी।


स्त्रियों की दशा

  

वैदिक समाज पुरुष प्रधान था लेकिन स्त्रियों की दशा अच्छी थी। पूर्व वैदिक काल में कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था जिसके कारण उन्हें पुरुषों की तरह शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। पूर्व वैदिक काल में लोपामुद्रा, घोषा, सिक्ता विश्ववारा अपाला जैसी अनेक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने ऋग्वेद की बहुत सी  ऋचाओं की रचना की। पूर्व वैदिक काल में स्त्रियां सभा और विदथ में भाग लेती थी। उन्हें पुनर्विवाह, बहुपति विवाह तथा नियोग प्रथा का अधिकार प्राप्त था। आधुनिक कुरीतियों जैसे- दहेज प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का उल्लेख इस समय नहीं मिलता है। महिलाओं को इस समय केवल संपत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था अन्य मामलों में वे पुरुषों के समकक्ष थीं।


परंतु उत्तर वैदिक काल आते-आते स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। इसका उल्लेख तत्कालीन साहित्य में भी मिलता है जैसे- ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को ही समस्त दुखों का कारण माना गया है, इसी प्रकार मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों को जुआ और सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है। परंतु इसका अर्थ है यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा बहुत खराब हो चुकी थी क्योंकि, शतपथ ब्राह्मण में स्त्री को अर्धांगिनी कहा गया है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया और उन्हें सभा और विदथ में भाग लेने से रोक दिया गया। बाल विवाह भी प्रचलन में आ गया, संपत्ति का अधिकार उन्हें पहले से नहीं प्राप्त था। इस प्रकार धीरे-धीरे स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आना शुरू हो गया।


वर्ण व्यवस्था

  

ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण व्यवस्था का पहली बार उल्लेख मिलता है। जिसमें एक विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पत्ति दिखाई गई हैं। इस प्रकार शूद्र शब्द पहली बार पुरुष सूक्त में ही प्राप्त होता है। वर्ण शब्द के दो अर्थ हैं वरण करना या चुनना तथा रंग।

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वैसे तो वर्ण व्यवस्था के नींव पूर्व वैदिक काल में ही पड़ चुकी थी, परंतु यह स्थापित हुआ उत्तर वैदिक काल में। यज्ञ तथा कर्मकांड बढ़ने से ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। परन्तु अभी तक समाज में छुआछूत  और वर्णभेद प्रचलित नहीं हुआ था।


खानपान 


आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। उनका प्रिय भोजन था- दूध, दही, घी, जौ आदि था । परंतु ऋग्वेद में चावल और नमक का उल्लेख नहीं है। सुरापान की निंदा की गई है जबकि सोम का पान प्रशंसनीय था। उत्तर वैदिक काल तक आते-आते आर्यों को चावल, नमक, मछली, हाथी, बाघ आदि का ज्ञान हो गया। परन्तु सामान्य खान-पान में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। 



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