भूगोल के महत्वपूर्ण शब्दावली
सुनामी
तीव्र गति से भूकम्पों से महासागरों में उत्पन्न होने वाली ऊँची लहरों को सुनामी कहते हैं। ‘सुनामी जापानी भाषा का शब्द है। सुनामी की लहरों से जान-माल की भारी हानि होती है। सामान्यतः सुनामी लहरें 100 से 150 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलती हैं, परंतु भीषण भूकम्प आने पर इनकी गति 900 किलोमीटर प्रति घंटे तक हो सकती है। उनकी उत्पत्ति महासागरीय गर्तों में होती है
सबसे अधिक सुनामी प्रशांत महासागर में आती हैं, क्योंकि उसमें गर्तों की संख्या सबसे अधिक है।
हिमनद (हिमानी)
हिम की ऐसी राशि, जो धरातल पर संचय के स्थान से धीरे-धीरे खिसकती है। हिमक्षेत्र की निचली सीमा को हिमरेखा कहते हैं।
हिमानी के रूप एवं आकार के आधार पर चार प्रकार की हिमानियां होती हैं-
हिमटोपी
पर्वत शिखरों पर स्थित हिमचादर को ही हिमटोपी कहते हैं। ये अधिक ऊंचाई पर स्थित होती हैं।
पर्वतीय अथवा घाटी हिमानी
हिमटोपियों से जब हिमराशि गुरुत्व के कारण ढाल के नीचे सरकती है, इसे ही घाटी हिमानी कहते हैं।
गिरिपदीय हिमानी
पर्वतों से उतरकर कई हिमानियां तलहटी में एकत्रित होती हैं, गिरिपदीय हिमानी कहते हैं।
हिमनद द्वारा निर्मित अपदरनात्मक स्थलाकृतियां
यू-आकार की घाटी
अनवरत घिसाव से पर्वत प्रक्षेप नष्ट हो जाते हैं, जिनसे घाटियां चौड़ी हो जाती हैं।
लटकती घाटी
यू आकार की घाटी से मिलने वाली घाटी के ऊपर की ओर, लटकती घाटी होती है।
सर्क या हिम गह्वर
हिमनद के प्रवाहित होने से पूर्व कोई गड्ढा होता है, जो जल के घर्षण से बनता है।
टार्न
सर्क रूपी बेसिन में जल भरने से बनी एक लघु झील।
गिरि श्रृंग
पिरामिड की आकार की नुकीली चोटी।
फियोर्ड
निमग्न हिमानीकृत घाटियाँ।
हिमपात्र
नदी घाटी में हिमानी अपदरन से बने विशाल सोपान।
हिमनद द्वारा निक्षेपात्मक स्थलाकृतियां
पार्श्बिक हिमोड़- संकरे, लंबे तथा खड़े ढालयुक्त कटक।
मध्यस्थ हिमोड़- दो हिमानियों के संगम पर बने हिमोड़।
तलवर्ती हिमोड़- तल में निक्षेपित पदार्थों से बने हिमोड़।
ड्रमलिन- गोलाश्म मृतिका की एक लंबी, चिकनी और अण्डाकार पहाड़ी।
केटिल- हिमखंडो के पिघलने से इनकी रचना होती है।
पवन- अपरदन के अन्य कारकों की तरह पवन भी अपरदन तथा निक्षेप का मुख्य कारक है। पवन का अपरदन भौतिक एवं यांत्रिक प्रक्रमों द्वारा होता है। मरूस्थलीय क्षेत्रों में जल द्वारा रासायनिक क्रिया होती है। यांत्रिक अपक्षय द्वारा शैलें ढीली पड़ जाती हैं, जिससे पवन सरलता से अपरदित करके स्थानांतरित करती है।
पवन द्वारा अपरदनात्मक स्थलाकृतियां
भूस्तंभ- कठोर शैल के आवरण वाला वह भाग जो कट नहीं पाता है, स्तंभ के रूप में दिखाई पड़ता है, इसे ही भूस्तंभ कहते हैं।
यारडांग- जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत् दिशा में मिलते हैं, तो पवन कठोर शैल की अपेक्षा मुलायम शैल को शीघ्र अपरदित करके उड़ा ले जाती है। तो कठोर शैल खडे रह जाते हैं। पार्श्व में कटाव से नालियां बन जाती हैं, इन्हें ही यारडांग कहते हैं।
छत्रक शिला- छतरीनुमा स्थलरूप, जो कोमल शैल के कटने से बनती है, रेत उसके ऊपर नहीं जा पाती।
वातागर्त या अपवाद बेसिन- पवन द्वारा धऱातल की ढीली तथा असंगठित शैलें अपवाहन क्रिया द्वारा उड़ा ले जायी जाती हैं, तो छोटे गर्त बन जाते हैं।
ज्यूजेन- ये मरूस्थलीय क्षेत्र में प्रतिरोधी एवं कठोर शैलों के सपाट मेजनुमा स्तरित शैलपिंड हैं।
पवन द्वारा निर्मित निक्षेपात्मक स्थलाकृतियाँ
बालुका स्तूप- रेत के टीले के गतिशील ढेर हैं। इनके समूह को स्तूप श्रृंखला कहते हैं।
बरखान- यह अनुप्रस्थ स्तूप का रूप है। ये अर्धचंद्राकार या चापाकार होते हैं। इनका विकास पवन की अनुप्रस्थ दिशा में समकोण पर होता है।
लोयस- इसका निर्माण पवन द्वारा उड़ाए गए धूल-कणों के निक्षेप से होता है।
उर्मिकाएं- पवन के बहने से मरूस्थल की रेतीली सतह पर सागरीय तरंगों की भाँति लहरदार चिह्न बन जाते हैं।
बालुका स्तूप- ये लम्बाकार एवं तीव्र शिखर वाली बालू निर्मित श्रेणीयां है, जो किसी स्थलाकृतिक बाधा के सहारे पवन की दिशा में आगे बढ़ती हैं।