अशोक महान (273B.C. से 232B.C.)
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अशोक को उसके अभिलेखों में सामान्यतः देवानांपिय कह कर संबोधित किया गया है। भाब्रू अभिलेख में उसे प्रियदर्शी जबकि मस्की में बुद्ध शाक्य कहा गया है। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में भी अशोक के नाम का उल्लेख है। सम्राट अशोक विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। चक्रवर्ती सम्राट अशोक का मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश, पाटिलीपुत्र से पश्चिम में अफ़गानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भू-भाग पर था। यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। सम्राट अशोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर ही रहे हैं। सम्राट अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक' कहा जाता है, जिसका अर्थ है -'सम्राटों के सम्राट' और यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य में बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए भी जाना जाता है।
अशोक का परिवार:
अशोक के कई पत्नियों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रन्थों से असंधिमित्रा, महादेवी, पद्मावती, तिष्यरक्षिता तथा अशोक के प्रयाग स्तंभ लेख से कारूवाकी नाम प्राप्त होता है। बौद्ध ग्रन्थों में अशोक की दो पुत्रियों संघमित्रा तथा चारूमती का उल्लेख है। उसके दो पुत्रों कुणाल और महेंद्र के नाम का भी बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है।अशोक के तीसरे पुत्र जालौक का उल्लेख राजतरंगिनी में मिलता है। उसके प्रयाग स्तंभ लेख में एक पुत्र तीवर का भी उल्लेख है।
राज्याभिषेक:
अशोक 273 ईसा पूर्व में गद्दी पर बैठा किंतु उसका राज्याभिषेक 4 वर्ष बाद 269 ईसा पूर्व में हुआ। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अशोक ने अपनी विमाताओ से उत्पन्न 99 भाइयों की हत्या करके गद्दी प्राप्त की। परंतु अशोक के पांचवें शिलालेख में उसके जीवित भाइयों एवं परिवार का उल्लेख मिलता है, संभव है कि उत्तराधिकार के युद्ध में अशोक ने अपने कुछ भाइयों की हत्या की हो क्योंकि उसके गद्दी पर बैठने और राज्याभिषेक के बीच में 4 वर्ष का लंबा अंतराल मिलता है।
कलिंग विजय (261 ईसा पूर्व)
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष बाद अर्थात 261 ईसा पूर्व में कलिंग की विजय की। इसका उल्लेख उसके 13वें शिलालेख में मिलता है। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट ने अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुंचा। युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा। अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और दिग्विजय के स्थान पर धम्म विजय की नीति को अपनाया।
अशोक का धर्म परिवर्तन:
कलिंग युद्ध में हुई क्षति तथा नरसंहार से उनका मन युद्ध से ऊब गया और वह अपने कृत्य को लेकर व्यथित हो उठे। इसी शोक से उबरने के लिए वह बुद्ध के उपदेशों के करीब आते गये और अंत में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
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बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद उन्होंने उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी किया। उन्होंने शिकार तथा पशु-हत्या करना छोड़ दिया। उन्होंने सभी सम्प्रदायों के सन्यासियों को खुलकर दान देना भी आरंभ किया। जनकल्याण के लिए उन्होंने चिकित्सालय, पाठशाला तथा सड़कों आदि का निर्माण करवाया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भेजा। इसी कार्य के लिए उसने अपने पुत्र एवं पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा था। अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली। महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया, और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को 'देवनामप्रिय' की उपाधि दी।
अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया।यहीं अभिधम्मपिटक की रचना भी हुई।
अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-
1: धर्म यात्राओं का प्रारम्भ,
2: राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति,
3: धर्म महापात्रों की नियुक्ति,
4: लोकाचारिता के कार्य,
5: धर्मलिपियों का खुदवाना,
6: विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रारम्भ धम्म यात्राओं से किया। वह अभिषेक के 10वें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी। अपने अभिषेक 20वें वर्ष में लुम्बिनी ग्राम की यात्रा की। नेपाल तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
अभिषेक के 13वें वर्ष के बाद उसने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे 'धर्म महापात्र' कहा गया था। इसका कर्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करना था।