गुप्त काल
(toc) #title=(Table of Content)
कुषाणों के पतन के बाद उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। ये राज्य गणतंत्र एवं राजतंत्र में विभाजित थे। ऐसे ही समय में मगध में गुप्त राजवंश का उदय हुआ। ये संभवत: कुषाणों के सामंत थे।
गुप्तों की उत्पत्ति:
विद्वानों ने गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत दिए हैं जिनमें से कुछ मत निम्नलिखित है-
काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार गुप्त शासक जाट जाति के थे और पंजाब के मूल निवासी थे।
गौरीशंकर ओझा गुप्तों क्षत्रिय मानते हैं।
रायचौधरी गुप्तों को ब्राह्मण वंश का मानते हैं।
एलन और अल्तेकर गुप्तों को वैश्य मानते हैं। स्मृतियों के अनुसार नाम के उत्तरांश में गुप्त शब्द का जोड़ा जाना वैश्यों की विशेषता थी। इसके अतिरिक्त वह गुप्तों के 'धारण' गोत्र पर बल देते हैं। धारण अग्रवाल वैश्यों का एक विशिष्ट गोत्र माना जाता है।
अधिकांश विद्वान गुप्तों को वैश्य मानते हैं।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
गुप्त वंश
संस्थापक- श्री गुप्त
इसने महाराज की उपाधि धारण की । इसके बाद घटोत्कच शासक हुआ। इसने भी महाराज की उपाधि धारण की।
चंद्रगुप्त प्रथम (319-334 ई.)
राजधानी-पाटलिपुत्र
यह गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक था। इसने महाराजधिराज की उपाधि धारण की । इसके राज्यारोहण की तिथि 319 ई. गुप्त संवत का आरंभ माना जाता है। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छिवि राजकुमारी श्री कुमारदेवी से विवाह किया। इसके साम्राज्य का विस्तार आधुनिक बिहार एवं उत्तर प्रदेश के अधिकांश भू भागों तक माना जाता है।
समुद्रगुप्त पराक्रमांक (335-375A.D.)
चंद्रगुप्त प्रथम के उपरांत समुद्रगुप्त शासक बना। समुद्रगुप्त (चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र) को "भारत का नेपोलियन" कहा जाता है, क्योंकि वह गुप्त साम्राज्य के सबसे महान और सफल सम्राटों में से एक थे। उनका शासनकाल लगभग 335 से 375 ईस्वी तक था। इस काल को भारत के स्वर्ण युग के रूप में देखा जाता है। उन्होंने अपनी प्रशासनिक नीतियों, सैन्य विजय और सांस्कृतिक संरक्षण के माध्यम से गुप्त साम्राज्य को अपने चरम पर पहुंचाया।
राजनीतिक और सैन्य उपलब्धियां:
समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। उनकी विजय को "इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख" (प्रयाग प्रशस्ति) जो चंपू शैली लिखा गया है,इसमें विस्तार से वर्णित किया गया है, जिसे उनके दरबारी कवि हरिषेण ने लिखा था।
उत्तर भारत की विजय-
समुद्रगुप्त ने अपनीशासन के शुरुआत में ही कई छोटे-छोटे राज्यों को जीत लिया।
उत्तर भारत के लगभग सभी राज्य उनके अधीन आ गए।
दक्षिण भारत की विजय-
दक्षिण भारत में उन्होंने 'दक्षिण-पथ अभियान' चलाया। इसमें उन्होंने 12 राज्यों को पराजित किया, जिनमें कांची, अवमुक्त, वेंगी, और कोशल प्रमुख थे।
हालांकि, उन्होंने दक्षिण के शासकों को हराने के बाद उनके राज्यों को वापस कर दिया। इसका कारण उनके प्रति वफादारी सुनिश्चित करना था।
कूटनीतिक विजय-
समुद्रगुप्त की महानता का एक और प्रमाण यह है कि कई विदेशी शासकों ने उन्हें सम्मान और उपहार भेजे। इनमें श्रीलंका के राजा मेघवर्ण और दक्षिण-पूर्व एशिया के शासक शामिल थे।
प्रशासनिक नीतियां-
समुद्रगुप्त एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने साम्राज्य को व्यवस्थित और संगठित बनाए रखा।उन्होंने एक मजबूत और प्रशिक्षित सेना बनाई, जिसमें पैदल सैनिक, घुड़सवार सेना और हाथी सेना शामिल थे।
राज्य व्यवस्था साम्राज्य को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए उन्होंने केंद्रीकृत प्रशासन प्रणाली का विकास किया।
समुद्रगुप्त ने सभी धर्मों को संरक्षण दिया, विशेष रूप से ब्राह्मणवाद, बौद्ध धर्म और जैन धर्म को।
सांस्कृतिक योगदान-
समुद्रगुप्त का युग भारतीय संस्कृति, कला और साहित्य के विकास का स्वर्ण युग था। समुद्रगुप्त स्वयं एक महान कवि और संगीतज्ञ थे। उन्हें 'कविराज' की उपाधि दी गई। उनके दरबार में कला और साहित्य को काफी प्रोत्साहन मिला।समुद्रगुप्त के समय के सोने और चांदी के सिक्के उनकी कला और प्रशासन की उन्नति को दर्शाते हैं।
उन्होंने ब्राह्मणवाद को संरक्षण दिया और कई यज्ञों का आयोजन किया। साथ ही, बौद्ध भिक्षुओं और श्रीलंका के अनुरोध पर बौद्ध विहारों का निर्माण करवाया।
समुद्रगुप्त का राज्यक्षेत्र-
समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएं गंगा के मैदानों से लेकर नर्मदा नदी तक और पश्चिम में राजस्थान से लेकर बंगाल तक फैली थीं।
उनकी मृत्यु के बाद भी गुप्त साम्राज्य ने उनकी नीतियों और आधारभूत संरचना के कारण कई वर्षों तक समृद्धि पाई। उनका शासन न केवल राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति के लिए भी ऐतिहासिक माना जाता है।
समुद्रगुप्त का शासन भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। उनकी विजय, प्रशासनिक नीतियां, और सांस्कृतिक संरक्षण ने गुप्त साम्राज्य को एक अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंचाया। उन्हें एक महान योद्धा, कुशल प्रशासक और संवेदनशील संरक्षक के रूप में याद किया जाता है।
Click The Image Below To Download Gyanalay Android App 👇🏻👇🏻
चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य'
(375-415 ई.)
अन्य नाम - देवराज या देवगुप्त, विक्रमांक, विक्रमादित्य
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने गुप्त साम्राज्य की सत्ता प्राप्त करने के लिए कुशलता, रणनीति और शक्ति का उपयोग किया। चंद्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त के पुत्र थे। परंतु समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद, उनके बड़े पुत्र रामगुप्त ने गुप्त साम्राज्य का सिंहासन संभाला। रामगुप्त को एक कमजोर और अयोग्य शासक माना जाता था। उसके शासनकाल में साम्राज्य की स्थिति कमजोर हो गई थी। ऐतिहासिक कथाओं और नाटकों के अनुसार, रामगुप्त ने शक क्षत्रपों के खिलाफ लड़ाई में हार मानते हुए अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को उनके सामने समर्पित करने का निर्णय लिया। किन्तु चंद्रगुप्त द्वितीय ने इस निर्णय का विरोध किया और स्वयं शकों के खिलाफ युद्ध लड़ने का निश्चय किया।उन्होंने शकों को हराया और अपने बड़े भाई रामगुप्त को सत्ता से हटाकर खुद सम्राट बन गए। चंद्रगुप्त द्वितीय ने रामगुप्त को हराने के बाद उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह किया। यह विवाह उनकी शक्ति को और सुदृढ़ करने का प्रतीक था।
वैवाहिक संबंध :
चंद्रगुप्त द्वितीय, जिन्हें विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है, गुप्त साम्राज्य के महान शासकों में से एक थे। उनका वैवाहिक संबंध राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। उनके वैवाहिक संबंधों के कुछ प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं-
1. कुबेरनागा से विवाह:
चंद्रगुप्त द्वितीय का विवाह नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से हुआ था। यह विवाह गुप्त साम्राज्य और नागवंश के बीच राजनीतिक गठबंधन को मजबूत करने के उद्देश्य से किया गया था। नागवंश उस समय एक शक्तिशाली राजवंश था और इस संबंध ने गुप्त साम्राज्य की स्थिति को और सुदृढ़ किया।
2. प्रभावती गुप्त:
चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक वंश के राजा रुद्रसेन द्वितीय से हुआ था। यह विवाह भी एक कूटनीतिक कदम था, जिससे गुप्त और वाकाटक वंश के बीच गठबंधन स्थापित हुआ। रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के बाद प्रभावती गुप्त ने वाकाटक साम्राज्य का शासन संभाला, जिससे गुप्त साम्राज्य की शक्ति में वृद्धि हुई।
चंद्रगुप्त द्वितीय के वैवाहिक संबंधों ने गुप्त साम्राज्य के विस्तार और स्थायित्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन संबंधों ने साम्राज्य को राजनीतिक और सैन्य सहयोग के माध्यम से मजबूत किया।
विजय:
दक्षिण दिल्ली में मेहरौली स्थित लौह स्तंभ में चंद्र नामक शासक की विजयों का उल्लेख है।इस चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की जाती है।
शक विजय:
चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन के अंतिम शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को 409 ईस्वी में पराजित किया। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने मालवा क्षेत्र में बव्याघ्र शैली के चांदी के सिक्के चलाएं। यह सिक्के उसकी शकों पर विजय के सूचक हैं।
नवरत्न:
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्न (नौ प्रमुख विद्वान) उनकी विद्वता, कला और संस्कृति के संरक्षण के प्रतीक थे। इन नवरत्नों ने साहित्य, विज्ञान, दर्शन और कला में महान योगदान दिया। ये हैं-
कालिदास (प्राचीन भारत के महानतम कवि और नाटककार), वराहमिहिर (महान खगोलशास्त्री और ज्योतिषी), धन्वंतरि (प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद के जनक), अमरसिंह (संस्कृत के महान कोशकार),वेतालभट्ट (संस्कृत साहित्य और हास्य व्यंग्य के कवि), वररुचि (संस्कृत व्याकरण और भाषा विज्ञान के विद्वान), घटकर्पर (संस्कृत कवि और साहित्यकार), शंकु (महान वास्तुशास्त्री और गणितज्ञ), कपिल (दार्शनिक और सांख्य योग के प्रवर्तक)।
प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में ही भारत आया।
सिक्के:
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास और कला के अध्ययन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनके सिक्कों में गुप्तकालीन कला, संस्कृति, धार्मिक प्रतीक और उनके शासन की शक्ति का प्रतिबिंब देखने को मिलता है। चंद्रगुप्त के स्वर्ण,चांदी और तांबे के सिक्के मिले हैं।सोने के सिक्कों को दीनार,चांदी के सिक्कों को रूपक कहा जाता था।
कुछ सिक्कों में उन्हें सिंहासन पर बैठे हुए दिखाया गया है, जो उनके शाही गौरव का प्रतीक है। कुछ सिक्कों पर हिंदू देवी-देवताओं के चित्र जैसे लक्ष्मी, गरुड़ और अशोक वृक्ष के अंकन मिले हैं।
घुड़सवार और धनुर्धारी राजा:
ऐसे सिक्कों पर घुड़सवार या धनुष धारण किए हुए राजा का चित्रण हुआ है इन सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में लेखन किया गया है।
सिंह-निहंता प्रकार: राजा को सिंह को वश में करते हुए दिखाया गया है।
अश्वरोही प्रकार: राजा को घोड़े पर सवार दिखाया गया है।
गरुड़ प्रकार: गरुड़ के प्रतीक वाला सिक्का।
गुप्त वंश: कुमारगुप्त
कुमारगुप्त (415 से 455 ई.) , चंद्रगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न पुत्र था। कुमारगुप्त के समय में गुप्तकालीन सर्वाधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनकी संख्या लगभग 18 है। इसके समय में गुप्तकालीन मुद्राओं का सबसे बड़ा ढेर बयाना मुद्राभांड (राजस्थान के भरतपुर जिले में) से प्राप्त हुआ है। जिसमें 623 मुद्राएं मिली हैं, इनमें मयूर शैली की मुद्राएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कुमारगुप्त प्रथम के अंतिम दिनों में पुष्यमित्र नामक जातियों(हूण) ने आक्रमण किया। इसका उल्लेख स्कंदगुप्त के भीतरी अभिलेख में मिलता है। कुमारगुप्त ने इन्हें पराजित करने के लिए अपने योग्य पुत्र स्कंदगुप्त को भेजा। स्कंदगुप्त पुष्यमित्रों को पराजित करने में सफल हुआ। कुमारगुप्त ने ही नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई।
कुमारगुप्त कालीन अभिलेख:
विलसड अभिलेख:
यह कुमारगुप्त के शासनकाल का प्रथम अभिलेख है तथा उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित है। इसमें कुमार गुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है।
करमदण्डा अभिलेख:
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित यह अभिलेख शिव प्रतिमा के अधोभाग में उत्कीर्ण है। इस प्रतिमा की स्थापना कुमार गुप्त के मंत्री पृथ्वीसेन की थी।
दामोदरपुर ताम्रपत्र:
यह बांग्लादेश के दीनाजपुर जिले में स्थित है। इस ताम्रपत्र से उसकी स्थानीय शासन व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।यहां का शासक चिरादत्त था।
अन्य अभिलेख:
कुमारगुप्त कालीन अन्य अभिलेख हैं- गढ़वा के दो शिलालेख, मनकुंवर अभिलेख, मथुरा लेख, सांची अभिलेख, उदयगिरि गुहालेख, तुमैन अभिलेख, धनदेह ताम्रपत्र आदि।
सिक्के:
कुमारगुप्त ने स्वर्ण, रजत तथा ताम्र मुद्राएं जारी की।मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन इसी के काल में हुआ। इसकी कुछ प्रमुख मुद्राएं निम्नलिखित हैं -
मयूर प्रकार की मुद्रा:
इस प्रकार की मुद्रा के मुख् भाग पर मयूर को खिलाते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय की आकृति उत्कीर्ण है।
अश्वमेघ प्रकार की मुद्रा:
इस प्रकार की मुद्रा से कुमारगुप्त के अश्वमेध यज्ञ करने का पता चलता है।
इसके अतिरिक्त व्याघ्र निहंता प्रकार, अश्वरोही प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, गजारोही प्रकार की मुद्राएं मिली हैं।
गुप्त वंश: स्कंदगुप्त
स्कंदगुप्त (455 से 467 ई.) को क्रमादित्य और शक्रादित्य नाम से भी जाना जाता है।इसके समय में मध्य एशिया के हूणों ने आक्रमण किया परंतु पराजित हुए। हूणों पर स्कंदगुप्त की सफलता का गुणगान इसके भीतरी और जूनागढ़ अभिलेख से प्राप्त होता है।
हूण:
यह मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी । इनका प्रथम आक्रमण स्कंद गुप्त के समय में हुआ इसका नेता खुश नवाज था। स्कंद गुप्त और हूणों के बीच युद्ध का वर्णन भीतरी स्तंभ लेख में हुआ है। हूणों का दोबारा आक्रमण तोरमाण के नेतृत्व में हुआ। तोरमाण के बाद उसके पुत्र मिहिरकुल ने भी अपना राज्य स्थापित किया। उसकी राजधानी सियालकोट थी।उसके ग्वालियर लेख से ज्ञात होता है कि वह शिव का भक्त था।
प्रशासन:
स्कंदगुप्त न केवल एक योग्य सैन्य संचालक था अपितु एक आदर्श प्रशासक भी था। उसके जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसने सौराष्ट्र प्रांत में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल नियुक्त किया। इस लेख में गिरनार के प्रशासक चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बांध के पुनर्निर्माण का वर्णन है। स्कंदगुप्त ने चीन के साथ मित्रता पूर्ण संपर्क बनाए रखा तथा 466 ईस्वी में एक राजदूत को चीन के सांग सम्राट के दरबार में भेजा।
अभिलेख:
जूनागढ़ अभिलेख - यह अभिलेख 455 ई.का है। यह अभिलेख सौराष्ट्र के जूनागढ़ से प्राप्त हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि स्कंद गुप्त ने हूणों को पराजित कर सौराष्ट्र प्रांत में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल नियुक्त किया। इस लेख में गिरनार के पुरपति चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बांध के पुनर्निर्माण का विवरण भी है।
भीतरी स्तंभ लेख - उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में स्थित इस लेख में पुष्यमित्रों और हूणों के साथ स्कंद गुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है।
कहौम स्तंभ लेख - यह अभिलेख गोरखपुर जिले में स्थित है। इससे पता चलता है कि भद्र नामक एक व्यक्ति ने पांच जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था।
सुपिया का लेख -मध्य प्रदेश के रीवा जिले में स्थित इस लेख से गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से मिलती है। इसमें गुप्त वंश को घटोत्कच वंश कहा गया है।
गढ़वा शिलालेख - इलाहाबाद जिले के करछना तहसील में गढ़वा नामक स्थान से स्कंदगुप्त के शासनकाल का अंतिम ( 467 ई.) अभिलेख मिला है।
सिक्के - स्कंद गुप्त ने वृषभ शैली के नए सिक्के जारी किए।