आभीर वंश (200-500A.D.)
आभीर वंश एक प्राचीन भारतीय वंश था जो पश्चिमी भारत में स्थापित हुआ था और इसकी राजधानी प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठन) में थी।
आभीर वंश के प्रमुख शासक क्रमशः ईश्वरसेन (200-220 ईस्वी), शिवसेन (220-240 ईस्वी), शिवदत्त (240-260 ईस्वी), ईश्वरसेन द्वितीय (260-280 ईस्वी), त्रिलोकसेन (280-300 ईस्वी) थे। इस वंश के संस्थापक ईश्वरसेन ने 248-49 ई. के लगभग कल्चुरी-चेदि संवत् की स्थापना की।
अभीर वंश की विशेषताएं:
1. हिंदू धर्म का पुनरुत्थान।
2. कला और संस्कृति का विकास।
3. व्यापार और वाणिज्य का विकास।
4. सैन्य शक्ति।
5. प्रशासनिक व्यवस्था
अभीर वंश के पतन के कारण-
1. आंतरिक संघर्ष।
2. बाहरी आक्रमण।
3. आर्थिक कमजोरी।
4. सामाजिक अस्थिरता।
5. राजनीतिक विभाजन।
अभीर वंश के प्रमुख नगर थे- प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठन), उज्जैन, विदिशा, कानपुर, माहिष्मती आदि।
इक्ष्वाकु वंश
इस वंश के लोग कृष्णा- गुंटूर क्षेत्र में शासन करते थे । पुराणों में इन्हें श्री पर्वतीय तथा आंध्र भ्रितय कहा गया है। ये सातवाहनों के सामंत थे। इस वंश का संस्थापक श्री शांतमूल था। उसने अश्वमेघ यज्ञ किया। वीरपुरुष दत्त इसका उत्तराधिकारी हुआ। इसने नागार्जुनीकोण्डा के प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण करवाया। अमरावती तथा नागार्जुनीकोण्डा प्राप्त उसके लेख में बौद्ध संस्थाओं को दान दिए जाने का विवरण मिलता है। शांतमूल द्वितीय इसके बाद शासक हुआ। इस वंश के राजाओं ने तृतीय शताब्दी के अंत तक शासन किया। तत्पश्चात उनका राज्य कांची के पल्लवों के अधिकार में चला गया। इक्ष्वाकु लोग बौद्ध मत के पोषक थे।