मौर्योत्तर कालीन : आर्थिक दशा
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मौर्योत्तर काल आर्थिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जा सकता है। इस काल में शिल्प एवं वाणिज्य व्यापार की अभूतपूर्व उन्नति हुई। सिक्के अत्यधिक मात्रा में प्रचलित हुई तथा बंदरगाहों एवं नगर मार्गों का संपूर्ण भारत में जल बिछ गया। इसी समय भूमि दान की अक्षयनीवी प्रणाली की भी शुरुआत हुई।
भूमि दान- सातवाहनों ने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में भूमि दान की प्रथा आरंभ की । सातवाहनों और कुषाणों ने पहली शताब्दी ईस्वी में भूमि दान की अक्षयनीवी प्रणाली की शुरुआत की।इसका आशय है- भू राजस्व का स्थाई दान।
मौर्योत्तर कालीन शिल्प:
मौर्योत्तर काल में कारीगरी एवं शिल्पो का विलक्षण विकास हुआ। इस काल के ग्रन्थों में शिल्पियों के जितने प्रकार मिलते हैं उतने पहले के लिखे ग्रन्थों में नहीं मिलते। मिलिंदपन्हो में 75 व्यवसाय गिनाए गए हैं जिनमें 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पो से संबंधित हैं।
मौर्योत्तर राज्य व्यवस्था की एक उल्लेखनीय बात यह है कि ईसा पूर्व दूसरी तथा पहली शताब्दी में उत्तर भारत में कम से कम एक दर्जन ऐसे नगर थे जो लगभग स्वशासी संगठनों की तरह काम करते थे। इन नगरों के व्यापारियों के संघ सिक्के जारी करते थे। तक्षशिला में उत्खनन से प्राप्त हुए पांच सिक्कों में निगम शब्द का उल्लेख मिलता है। त्रिपुरी, महिष्मती, विदिशा, एरण, माध्यमिका, वाराणसी आदि नगरों के नामों का उल्लेख भी उनकी ताम्र मुद्राओं में हुआ है।
मौर्योत्तर कालीन प्रमुख उद्योग:
इस समय का प्रमुख उद्योग था- वस्त्र उद्योग, लोहा और इस्पात उद्योग, सीसा उद्योग और हस्ति-दंत शिल्प उद्योग। इस समय का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था। परंतु अन्य उद्योग भी अच्छी अवस्था में थे।जैसे- आंध्रा का करीमनगर और नालगोंडा जिले जो तेलंगाना क्षेत्र में आते हैं लोहा और इस्पात के सबसे प्रसिद्ध केंद्र थे। इस काल में हाथी दांत के निर्माण का उद्योग भी खूब फूला- फला। विदिशा में हस्ति-दंत शिल्पियों की एक श्रेणी थी जिसने सांची स्तूप के रेलिंग की मरम्मत करवाई। भारतीय दंत शिल्प की वस्तुएं अफगानिस्तान और रोम में मिली हैं।
मौर्योत्तर कालीन सिक्के:
इंडो ग्रीक शासको ने सर्वप्रथम रूपयुक्त, लेखयुक्त स्वर्ण सिक्के चलाएं । इनके स्वर्ण सिक्के स्टेटर कहे जाते थे। ये सिक्के द्विभाषिक लेख वाले होते थे- एक तरफ यूनानी भाषा एवं लिपि में तथा दूसरी तरफ प्राकृत भाषा एवं खरोष्ठी लिपि में। इनके चांदी के सिक्कों को द्रम्म कहा जाता था।
कुषाण शासको के स्वर्ण सिक्के रोमन मानक के बराबर होते थे। कुषाणों ने ही सर्वप्रथम शुद्ध सोने के सिक्के चलाएं। जो 124 ग्रेन के थे। इनके सिक्कों पर भारतीय देवी-देवताओं का अंकन मिलता है।इनमें बुद्ध, शिव, कार्तिकेय, चतुर्भुजी विष्णु, उमा आदि शामिल है। कुषाणों ने ही सबसे अधिक तांबे के सिक्के भी जारी किए।
सातवाहन शासको ने सर्वप्रथम सीसे के सिक्के जारी किए। इसके अतिरिक्त उन्होंने चांदी, तांबा, पोटीन आदि के सिक्के भी चलाए। इनके सिक्कों पर मछली, जहाज और शंख के चित्र मिलते हैं।
मौर्योत्तर कालीन व्यापार:
मौर्योत्तर कालीन व्यापार की सबसे प्रमुख विशेषता भारत का रोम के साथ फलता- फूलता विदेशी व्यापार था। यह व्यापार रोम के शासको- आगस्टस टाइवेरियस एवं नीरो के समय था। यह व्यापार भारत के पक्ष में था।
मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बंदरगाह:
मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बंदरगाह इस प्रकार हैं -
बैरीगाजा या भड़ौच: यह भारत के पश्चिमी तट पर सबसे प्राचीन तथा सबसे बड़ा प्रवेश द्वार था। पश्चिमी देशों के साथ अधिकांश व्यापार इसी के माध्यम से होता था।
बारबेरिकम: या सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित था।
अरिकमेडु: आधुनिक पांडिचेरी में स्थित इस बंदरगाह का नाम पेरिप्लस में पेडोक मिलता है। यहां 1945 में हुई विस्तृत खुदाई में एक रोमन बस्ती मिली है।
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कोरकई: यह पाण्ड्यो की बंदरगाह राजधानी थी।इसका एक नाम कालची भी मिलता है। यह मोतियों के लिए प्रसिद्ध था।
सोपारा: आधुनिक महाराष्ट्र में स्थित पश्चिमी तट पर प्रसिद्ध बंदरगाह था। इसके अलावा अन्य बहुत सारे बंदरगाह थे।
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