प्राचीन भारत के स्वर्णकाल का अंत
गुप्तोत्तर काल हिंदी नोट्स
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ अनेक नए वंशों का उदय प्रारंभ हुआ। इसमें वल्लभी के मैत्रक वंश, मालवा के यशोधर्मन, पंजाब के हूण, मालवा और मगध के उत्तरगुप्त, कन्नौज के मौखरि तथा स्थानेश्वर में पुष्यभूति वंश प्रमुख थे।
वल्लभी का मैत्रक वंश:
वल्लभी का मैत्रक वंश प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण राजवंश था, जिसने 5वीं से 8वीं शताब्दी के बीच गुजरात और उसके आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। इस वंश की राजधानी वल्लभी (वर्तमान में गुजरात के भावनगर जिले के पास स्थित) थी।
इस वंश की स्थापना भटार्क ने की थी। भटार्क पहले गुप्त साम्राज्य के सामंत थे, लेकिन गुप्त साम्राज्य की शक्ति कमज़ोर पड़ने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता हासिल कर ली।
भटार्क ने गुजरात क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की और वल्लभी को राजधानी बनाया।
मैत्रक वंश के प्रमुख शासक:
1. भटार्क (470-492 ईस्वी)
वंश का संस्थापक।
उन्होंने हून आक्रमणकारियों से गुजरात क्षेत्र की रक्षा की।
2. ध्रुवसेन (प्रथम) बलदित्य
धर्मनिष्ठ शासक और वैदिक संस्कृति का संरक्षक।
3. ध्रुवसेन(द्वितीय) बलदित्य
मैत्रक वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक।
उन्हें 'सिंह' की उपाधि दी गई थी।
हर्ष का समकालीन एवं उसका दामाद था।
उन्होंने कला और शिक्षा को बढ़ावा दिया और वल्लभी विश्वविद्यालय की स्थापना की।
4. शिलादित्य प्रथम
उन्होंने प्रशासनिक और सैन्य व्यवस्था को मजबूत किया।
वल्लभी के व्यापार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्नत किया।
5. शिलादित्य VI
अंतिम शासक, जिनके शासनकाल में अरबों के आक्रमण के कारण वंश का पतन हो गया।
वल्लभी विश्वविद्यालय
वल्लभी शहर प्राचीन भारत में शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। यह नालंदा विश्वविद्यालय के समकालीन था और बौद्ध धर्म, वैदिक धर्म, साहित्य, विज्ञान आदि की शिक्षा प्रदान करता था।
वल्लभी विश्वविद्यालय का ख्याति चीन के यात्रियों तक पहुंची। चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसके वैभव का वर्णन किया है।
मैत्रक वंश का पतन
8वीं शताब्दी के मध्य में अरब आक्रमणों और आंतरिक संघर्षों के कारण मैत्रक वंश का पतन हो गया। इसके बाद गुजरात पर चालुक्य और अन्य वंशों का प्रभाव बढ़ गया।
मालवा का यशोधर्मन
यशोधर्मन गुप्तकाल के बाद भारत के इतिहास में प्रसिद्ध मालवा के एक महान शासक थे। वे 530 ई. के लगभग अवंती के मालवा क्षेत्र में शासन करते थे। मंदसौर शिलालेख में उसे 'जनेंद्र' कहा गया है। लगता है कि उसका पूरा नाम जनेंद्र यशोधर्मन था और वह संभवतः औसिकर वंश से संबंधित था। यशोधर्मन अपनी विजय, प्रशासनिक दक्षता और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं।
यशोधर्मन की उपलब्धियाँ-
1. हूणों पर विजय-
यशोधर्मन का सबसे बड़ा कारनामा हूणों के राजा मिहिरकुल को हराना था। मिहिरकुल ने उस समय उत्तर भारत में अत्याचार और आतंक फैला रखा था। यशोधर्मन ने उसे पराजित कर भारत के गौरव को पुनः स्थापित किया। मंदर (वर्तमान राजस्थान) की लड़ाई में उन्होंने मिहिरकुल को हराया।
2. मंदसौर अभिलेख-
यशोधर्मन के शासन और उनकी उपलब्धियों के बारे में हमें जानकारी मंदसौर अभिलेख से मिलती है। इस अभिलेख में उनके साम्राज्य और विजयों का उल्लेख किया गया है।
3. साम्राज्य विस्तार-
यशोधर्मन ने अपने साम्राज्य का विस्तार पूर्व में गंगा घाटी से लेकर पश्चिम में मालवा और दक्षिण में नर्मदा नदी तक किया। उनके शासनकाल में मालवा एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा।
4. धार्मिक सहिष्णुता-
यशोधर्मन ने धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ावा दिया। उन्होंने हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का संरक्षण किया।
ऐतिहासिक महत्व-
यशोधर्मन भारतीय इतिहास में एक ऐसे शासक के रूप में स्मरणीय हैं जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों को हराया और अपने राज्य में सांस्कृतिक तथा राजनीतिक स्थिरता कायम की। उनकी वीरता और शासन क्षमता ने मालवा को एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में स्थापित किया।
मगध और मालवा के उत्तरगुप्त
संस्थापक- कृष्ण गुप्त
यह पूर्व गुप्तों से भिन्न थे। इस वंश के महान शासको में देवगुप्त तथा आदित्यसेन के नाम प्रसिद्ध हैं।
देव गुप्त:
मधुबन तथा वंशखेड़ा लेखों में देवगुप्त का उल्लेख मिलता है। यह संभवत: महासेन गुप्त का सबसे बड़ा पुत्र था। महासेन गुप्त की मृत्यु के बाद देवगुप्त ने मालवा पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार वह वर्धनों का स्वाभाविक रूप से शत्रु बन गया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसने गौड़ नरेश शशांक से मित्रता कर ली तथा शशांक के साथ मिलकर मौखरि नरेश गृहवर्मन की हत्या कर दी। बाद में उसने धोखे से शशांक के साथ मिलकर हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन की भी हत्या कर दी। अंततः हर्ष ने उसे पराजित कर दिया।
आदित्यसेन (655-75ई.)
इसने तीन अश्वमेघ यज्ञ किया। यह वैष्णव धर्म का उपासक था। इसके समय में चीनी राजदूत 'वांग-हुएन-त्से' ने दो बार भारत की यात्रा की। इसने बोधगया में एक बौद्ध मंदिर भी बनवाया।
कन्नौज का मौखरि वंश
संस्थापक- हरिवर्मा (510 ई.)
मालवा के यशोधर्मन की मृत्यु के बाद आर्यावर्त का शासन मौखरियों के हाथ में आ गया। वे भी गुप्तों के सामंत थे। वे मूलतः गया जिले के निवासी थे। कालांतर में उन्होंने कन्नौज में एक राज्य स्थापित किया। उनके समय में मगध के स्थान पर कन्नौज राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया। आगे चलकर कन्नौज महोदय नगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मौखरियों का इतिहास पुरातत्व तथा साहित्य दोनों से ज्ञात होता है। इस वंश के राजाओं में हरीवर्मा, आदित्य वर्मा, ईशान वर्मा, सर्ववर्मा, अवंती वर्मा एवं गृहवर्मा प्रमुख थे। इसमें मगध को मौखरि आधिपत्य में लाने का श्री सर्ववर्मा को जाता है। परंतु महाराजाधिराज की उपाधि धारण करने वाला प्रथम मौखरि शासक ईशान वर्मा था। सर्ववर्मा के बाद उसका पुत्र अवंतीवर्मा शासक हुआ। मुद्राराक्षस से पता चलता है कि उसने हूणों को जीता तथा उसी के समय में थानेश्वर के पुष्यभूति वंश से मौखरि वंश का वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ जो तत्कालीन इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।
गृह वर्मा (600 से 605 ई.)
यह अवन्तिवर्मा का पुत्र था। इसके विषय में विस्तृत जानकारी हर्षचरित से प्राप्त होती है। इसके अनुसार इसका शासन मगध से समाप्त हो गया और अब वह केवल कन्नौज का शासक था। हर्षचरित् से ही ज्ञात होता है कि उसका विवाह हर्ष की बहन राजश्री के साथ हुआ था। जिससे ये दोनों राज्य परस्पर नजदीक आ गए। इसके विरुद्ध मालवा के उत्तर गुप्त वंशीय नरेश देवगुप्त तथा बंगाल के गौड़ वंशीय नरेश शशांक के बीच दूसरी संधि स्थापित हुई। हर्षचरित से पता चलता है कि जिस समय थानेश्वर में प्रभात वर्मन की मृत्यु हुई। उसी समय देवगुप्त ने कन्नौज पर आक्रमण कर ग्रह वर्मा को मार डाला तथा राजश्री को कन्नौज के बंदीगृह में डाल दिया। उसकी मृत्यु के साथ ही मौखरि साम्राज्य का अंत हो गया तथा हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित कर ली। मौखरि शिव के उपासक थे।
बंगाल का गौड़ वंश
गौड़ वंश का उदय बंगाल में हुआ। इस वंश का प्रमुख शासक शशांक था। यह शैव धर्म का पोषक था। इसके सिक्कों पर शिव तथा नंदी की आकृतियां मिलती हैं। ह्वेनसांग के अनुसार उसने बोधगया के बोधि वृक्ष को कटवा कर गंगा में फेंकवा दिया। इसी प्रकार उसने पाटलिपुत्र के मंदिर में रखे हुए एक पाषाण स्तंभ का जिस पर बुद्ध के चरण चिन्ह उत्कीर्ण थे को भी उसने गंगा नदी में फेंकवा दिया। कुशीनगर के एक विहार के बौद्धों को भी उसने वहां से निष्कासित करवा दिया। आर्यमंजूश्रीमूलकल्प में भी उसका चित्रण बौद्ध द्रोही के रूप में किया गया है।
राज्यवर्धन द्वारा देवगुप्त की हत्या के बाद उसने राज्यवर्धन को अपने शिविर में आमंत्रित किया तथा धोखे से उसकी हत्या कर डाली। हर्ष और शशांक के बीच के संबंध का उल्लेख न तो हर्षचरित में मिलता है और न ही ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है।
आर्यमंजूश्रीमूलकल्प के एक श्लोक से पता चलता है कि हर्ष ने सोम (शशांक) की राजधानी पर आक्रमण कर उसे परास्त किया तथा उसके राज्य में ही रहने के लिए बाध्य किया।
पंजाब के हूण
हूण मध्य एशिया के निवासी थे। पारस्परिक कलह एवं जनसंख्या की वृद्धि के कारण वे अपना मूल निवास स्थान छोड़कर नए आवास की खोज में निकल पड़े।
हूणों का प्रथम आक्रमण कुमार गुप्त के समय में खुशनवाज द्वारा किया गया। स्कंद गुप्त के भीतरी तथा जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि वह स्कंद गुप्त द्वारा पराजित हुआ। हूणों का दूसरा आक्रमण तोरमाण के नेतृत्व में हुआ यह पहला आक्रमणकारी था जिसने भारत में अपना राज्य स्थापित किया। उसकी राजधानी चंद्रभागा (चेनाब) नदी के तट पर स्थित 'पवैया' थी।उसके पुत्र मिहिरकुल के ग्वालियर लेख से पता चलता है कि उसने सत्य एवं न्याय पूर्वक शासन किया। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प से पता चलता है कि मृत्यु के पूर्व ही उसने अपने पुत्र मिहिरकुल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।
मिहिरकुल:
चीनी यात्री सुंग-युन ने इसके समय में 520 ई. मैं भारत की यात्रा की। उसके अनुसार इसकी राजधानी गांधार में थी जबकि ह्वेनसांग इसकी राजधानी शाकल बताता है।
मिहिरकुल परवर्ती गुप्त शासक बालादित्य पर आक्रमण किया परंतु पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। परंतु बालादित्य ने अपनी माता के कहने में आकर उसे छोड़ दिया। इसके बाद वह कश्मीर भाग गया और वहां के शासन की भी हत्या कर दी। उसने अनेक बौद्ध स्तूपों तथा संघारामों को नष्ट करवा दिया। कॉसमॉस जो 530 ई के लगभग पश्चिमी भारत के बंदरगाहों की यात्रा पर आया था लिखता है कि भारत के उत्तर में श्वेत हूणों का राज्य है जिसका राजा मिहिरकुल है। मिहिरकुल को पराजित करने का श्रेय मालवा के शासक यशोधर्मन को भी जाता है।
मिहिरकुल कट्टर शैव मतानुयायी था तथा बौद्धों का घोर शत्रु था। कल्हण ने उसकी तुलना विनाश के देवता से की है।
परवर्ती हूण -
मिहिरकुल की पराजय के बाद हूणों की शक्ति में ह्रास होने लगा यद्यपि उनके छुट-फुट आक्रमण होते रहे। परंतु वे हर बार पराजित हुए। हूणों के साथ निरंतर संबद्ध रहने के कारण मालवा का समीपवर्ती क्षेत्र हूणमंडल के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
इन पराजयों के बाद उत्तरी तथा मध्य भारत के छोटे-छोटे भागों में हूण बस गए तथा उन्होंने क्रमशः अपने को भारतीय संस्कृति में विलीन कर लिया।