गुप्तकालीन संस्कृति: प्रशासन
गुप्त राजाओं का शासनकाल भारतीय इतिहास में 'स्वर्णयुग'के नाम से विख्यात है। इस समय सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई।
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प्रशासन: गुप्त शासन का केंद्र बिंदु राजा था। गुप्त शासक महाराजाधिराज और परमभट्टारक जैसी भारी भरकम उपाधियां धारण करते थे। राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। इसके ज्यादातर सदस्य उच्च वर्ग के होते थे, इन्हें अमात्य कहा जाता था। मंत्रियों का पद अधिकांशत: आनुवांशिक होता था। एक ही मंत्री के पास कई विभाग होते थे। गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ मंत्रियों का उल्लेख मिलता है जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं -
कुमारामात्य: यह राज्य के उच्च पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था अथवा प्रांतीय पदाधिकारी।
महासेनापति अथवा महाबलाधिकृत: सेना का सर्वोच्च अधिकारी।
महादंडनायक: युद्ध एवं न्याय का मंत्री।
दंडपाशिक: पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी। इस विभाग के साधारण कर्मचारियों को चाट और भाट कहा जाता था।
ध्रुवाधिकरण: भूमिकर वसूलने वाला प्रमुख अधिकारी।
करणिक: भूमि आलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी।
भूमि दान -
भूमि दान की प्रथा महाकाव्य युग से ही चली आ रही थी। भूमि दान का सबसे प्राचीन अभिलेखीय प्रमाण पहले शताब्दी ईसा पूर्व के सातवाहन अभिलेख से मिलता है । पांचवीं शताब्दी में भूमिदान की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी और छठे शताब्दी ईस्वी तक आते-आते यह पूर्णत: को प्राप्त हो गई । अब सामंत बिना राजा की अनुमति के ही भूमि दान करने लगे। डॉ. आर .एस.शर्मा ने इसे सामंतवाद के उदय का प्रमुख कारण माना है। इस प्रकार गुप्त काल के अंतिम समय में सामंतवाद का उदय हुआ।
गुप्तकालीन संस्कृति: प्रांतीय प्रशासन
गुप्तों का प्रांतीय प्रशासन इस प्रकार था -
गुप्त साम्राज्य ➡️ प्रांत (भुक्ति) ➡️ जिला (विषय) ➡️ तहसील(वीथि) ➡️ पेठ (ग्राम से बड़ी इकाई) ➡️ ग्राम(सबसे छोटी इकाई)। गुप्तकालीन प्रशासन मौर्य के अपेक्षा अत्यधिक विकेंद्रीकृत था।
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प्रशासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को अनेक प्रांतो में विभाजित किया गया था। प्रांत को भुक्ति कहा जाता था। इसके शासक को उपरिक कहा जाता था। इस पद पर राजकुमार अथवा राजकुल से संबंधित व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाता था। प्रत्येक प्रांत कई जिलों में विभाजित रहता था जिसे विषय कहा जाता था और यहां का प्रमुख अधिकारी विषयपति होता था।
गुप्तकालीन संस्कृति : न्याय प्रशासन
गुप्तकालीन स्मृतियों नारद और बृहस्पति से न्याय व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है। गुप्त युग में प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी कानून भली- भांति परिभाषित हुए। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों को महादंडनायक, दंडनायक, सर्वदंडनायक आदि कहा गया है। नालंदा तथा वैशाली से कुछ न्यायालय की मुद्राएं भी मिलती हैं। व्यापारियों की श्रेणियों के अपने अलग न्यायालय होते थे जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। फाह्यान के विवरण से पता चलता है कि दंड विधान अत्यंत कोमल था तथा मृत्यु दंड नहीं दिया जाता था।
सैनिक संगठन:
सेवा के सर्वोच्च अधिकारी को महाबलाधिकृत कहा जाता था।
गुप्त काल: सामाजिक जीवन
वर्ण व्यवस्था -
गुप्तकालीन समाज परंपरागत चार वर्णों में विभक्त था। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। क्षत्रियों का स्थान दूसरा तथा वैश्यों का तीसरा था। शूद्रों का मुख्य कर्तव्य अपने से उच्च वर्णों की सेवा करना था। वर्ण व्यवस्था के अनुसार बस्तियों की भी व्यवस्था थी। धर्म शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण के घर में पांच, क्षत्रियों के घर में चार, वैश्यों के घर में तीन और शूद्रों के घर में दो कमरे होने चाहिए। प्राचीन काल में कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के लिए अलग-अलग बस्तियों का विधान किया था।
न्याय व्यवस्था में भी वर्ण भेद बने रहे। न्याय संहिताओं में कहा गया है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से वैश्य की जल से और शूद्र की विष की जानी चाहिए। कात्यायन के अनुसार किसी मुकदमे में अभियुक्त के विरुद्ध गवाही वही दे सकता है जो जाति में उसके समान हो। निम्न जाति का व्यक्ति, उच्च जाति के साथियों से अपना वाद प्रमाणित नहीं करा सकता।
दंड व्यवस्था भी वर्ण पर आधारित थी। नारद स्मृति के अनुसार चोरी करने पर ब्राह्मण का अपराध सबसे अधिक और शूद्र का सबसे कम माना जाएगा।
इस प्रकार गुप्तकालीन स्मृतिकारों ने वर्ण भेदक नियमों का समर्थन किया। परंतु वर्ण व्यवस्था सदा सुचारू रूप से नहीं चली। क्योंकि इस काल में केवल क्षत्रियों ही नहीं ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र राजाओं का वर्णन भी मिलता है। मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने कदम्ब वंश की स्थापना की। इसी प्रकार विंध्यशक्ति नामक ब्राह्मण ने वाकाटक राजवंश की स्थापना की। गुप्त वंश के राजा और हर्षवर्धन संभवत: वैश्य थे। सौराष्ट्र, अवंति और मालवा के शूद्र राजाओं की चर्चा मिलती है। व्हेनसांग ने सिंध और मतिपुर के शासक को शूद्र बताया है।
ब्राह्मणों की पवित्रता पर बल दिया जाता था। इस काल के ग्रन्थों के अनुसार ब्राह्मण को शूद्र का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि इसे आध्यात्मिक बल घटता है।
गुप्तकालीन वर्ण व्यवस्था की प्रमुख विशेषता वैश्यों की सामाजिक स्थिति में गिरावट एवं शूद्रों की सामाजिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार परिलक्षित होते हैं। व्यापार में गिरावट के कारण वैश्य वर्ग को नुकसान पहुंचा जबकि दंड विधान आदि में कमी के कारण इसका सर्वाधिक फायदा शूद्र वर्ण को मिला और उनकी सामाजिक स्थिति वैश्यों के नजदीक आ गई।
मिश्रित जातियां:
अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के फलस्वरूप अनेक मिश्रित जातियों का उदय गुप्त काल में हुआ। गुप्तकालीन स्मृतियों में इसका उल्लेख मिलता है। जैसे- ब्राह्मण पिता तथा शूद्र माता से उत्पन्न संतान को निषाद कहा गया। इसी प्रकार शूद्र पिता तथा ब्राह्मण माता से उत्पन्न संतान को चांडाल की श्रेणी में रखा गया। इसी प्रकार अन्य जातियां की भी उत्पत्ति हुई।
दास प्रथा -
गुप्त काल में दास प्रथा प्रचलित थी। नारद और बृहस्पति स्मृतियों से स्पष्ट है कि दास केवल अपवित्र कार्यों में लगाए जाते थे। कात्यायन के अनुसार दासता ब्राह्मण के लिए नहीं है अर्थात ब्राह्मण किसी का दास नहीं बन सकता। नारद ने 15 प्रकार के दास बताए हैं । इसी प्रकार विज्ञानेश्वर ने भी 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। दास मुक्ति के अनुष्ठान का विधान भी सर्वप्रथम नारद ने किया है।
स्त्रियों की दशा -
गुप्त काल में स्त्रियों की दशा में पहले की अपेक्षा गिरावट आई।इसका प्रमुख कारण उनका उपनयन संस्कार बंद होना, बाल विवाह आरंभ होना, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा का प्रचलन होना था। बाल विवाह के कारण स्त्रियों की शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इस काल में केवल उच्च वर्ग में ही स्त्रियां सुशिक्षित होती थीं।
स्त्रियों के संपत्ति संबंधी अधिकारों में इस काल में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। पहली बार याज्ञवल्क्य स्मृति में पत्नी को भी पति की संपत्ति का अधिकारी बताया गया है। इस स्मृति के अनुसार पुत्र के अभाव में पुरुष की संपत्ति पर उसकी पत्नी का सर्वप्रथम अधिकार होगा और उसके बाद उसके कन्याओं का।
गुप्त काल में गणिकाएं नागरिक जीवन का सामान्य अंग थीं। कामसूत्र में गणिकाओ को दिए जाने वाले प्रशिक्षण के वर्णन से स्पष्ट है कि इस व्यवसाय की अधिक मांग थी। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस में उत्सव पर बड़ी संख्या में वेश्याओं के सड़क आने का उल्लेख है। देवदासियों का भी एक वर्ग था जो मंदिरों के साथ संबद्ध था।
गुप्त काल: आर्थिक जीवन
भू-राजस्व व्यवस्था -
गुप्त काल में राजा भूमि का मालिक था। वह भूमि से उत्पादन का 1/6 से लेकर 1/4 भाग तक लेता था। इस कर को 'भाग' कहा जाता था। मनु स्मृति में दूसरे प्रकार के भूमिकर भोग का उल्लेख है। जो संभवत: राजा को प्रतिदिन दी जाने वाली फल- फूल, तरकारी इत्यादि की भेंट के रूप में थी। भाग और भोग दोनों को भूमिकर माना जाता है। इसके अलावा अन्य दो भूमिकर और भी थे- उद्रंग और उपरिकर। उपरिकर अस्थाई काश्तकारों पर लगाए जाने वाला भूमिकर था जबकि उद्रंग स्थाई कृषकों पर लगने वाला कर था। कृषक भूमि कर को हिरण्य (अर्थात नगद) या मेय (अर्थात अन्न) दोनों रूप में दे सकते थे।
कुछ अन्य कर:
विष्टि- बेगार या नि: शुल्क श्रम
बलि -गुप्त काल में धार्मिक कर था।
शुल्क -चुंगी कर के लिए प्रयुक्त शब्द।
गुप्त काल की कर व्यवस्था के बारे में कामंदकीय नीतिसार में राजा को सलाह दी गई है कि जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल ग्रहण करता है उसी प्रकार प्रजा से राजा थोड़ा-थोड़ा धन ग्रहण करें। राजा के आचरण की तुलना उन्होंने ग्वाले तथा माली से की है।
वर्षा एवं सिंचाई:
गुप्त काल में सिंचाई प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों तरीकों से होती थी। व्हेनसॉन्ग तथा बाणभट्ट ने उल्लेख किया है कि सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग किया जाता था।
महाजनी (साहूकारी) व्यवस्था:
गुप्त काल में ऋण से प्राप्त ब्याज को दूषित या कृष्ण धन कहा गया है। इस काल में 15% ब्याज को न्याय संगत माना गया है परंतु समुद्रपारीय व्यापार में यह 20% हो सकता था।
श्रेणी:
जब उद्योगों और व्यापार में लगे व्यक्ति संगठित होकर अपने हितों की रक्षा करने के लिए एक संस्था बनाते थे तो श्रेणी का जन्म होता था, अर्थात संगठित व्यापारिक और औद्योगिक समूह को श्रेणी कहा जाता था।
श्रेणियों से संबंधित प्रमुख शब्दावलियां -
श्रेणी: एक ही कार्य करने वाले लोगों का समूह।
पूग: अलग-अलग कार्य करने वाले लोगों का समूह.
कुल: एक परिवार के कार्य करने वाले लोगों का समूह।
निगम: श्रेणियों से बड़ी संस्था जिसकी शिल्प श्रेणियां सदस्य थीं,उसे निगम कहा जाता था।
सार्थवाह: व्यापारियों का प्रमुख नेता।
गुप्तकालीन सिक्के -
गुप्त शासको ने सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्के चलाए। गुप्तों के स्वर्ण सिक्कों को दीनार कहा जाता था। कुषाणों ने यद्यपि सर्वाधिक शुद्ध सोने सिक्के चलाए परंतु सबसे अधिक सोने के सिक्के चलाने का श्रेय गुप्तों को ही प्राप्त है। परवर्ती गुप्त मुद्राओं का वजन बढ़ता गया किंतु उसमें सोने का अंश घटता गया। फाह्यान ने लिखा है कि लोग लेनदेन में कौड़ियों का प्रयोग करते थे। गुप्त शासको में सर्वप्रथम चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के उपलक्ष्य में चांदी के सिक्के चलाए। जो शक मानक के अनुरूप थे। गुप्त साम्राज्य के सिक्कों के 16 ढेर प्राप्त हो चुके हैं जिसमें सबसे महत्वपूर्ण बयाना (भरतपुर) का पुंज है।
व्यापार एवं वाणिज्य -
कुषाण काल की अपेक्षा गुप्त काल में वाणिज्य-व्यापार में गिरावट आई। जहां तक विदेशी व्यापार का प्रश्न है तो उसमें भी गिरावट आई। 364 ईस्वी में रोमन साम्राज्य का विभाजन दो भागों में हो जाने के कारण भारत और रोम के बीच व्यापार को धक्का लगा। फारसियों ने रेशम के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया और रोमन साम्राज्य से उनकी शत्रुता के कारण भारतीय व्यापार को ठेस लगी।
गुप्त युग में कई नग़र ह्रास के चिन्ह प्रदर्शित करते हैं। ह्वेनसांग ने पाटलिपुत्र को उजड़ा हुआ पाया। इसी प्रकार मथुरा, सोनपुर आदि नगर भारी ह्रास के ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
गुप्त काल: धार्मिक जीवन
यद्यपि गुप्त शासको का अपना धर्म वैष्णव धर्म था परंतु, वे अन्य धर्म के प्रति भी सहिष्णु थे। दो गुप्त शासको समुद्रगुप्त एवं कुमारगुप्त को अश्वमेघ यज्ञ करने का श्रेय प्राप्त है ।
वैष्णव धर्म:
गुप्त शासको का राजकीय धर्म वैष्णव ही था। उन्होंने 'परमभागवत' की उपाधि धारण की तथा 'गरुड़' को अपना राजकीय चिन्ह बनाया। गुप्तकालीन सबसे विख्यात मंदिर देवगढ़ का दशावतार मंदिर था जिसमें विष्णु के दशावतारों का चित्रण प्राप्त होता है। इसी प्रकार उदयगिरि गुहा अभिलेख में विष्णु के वाराह अवतार का उल्लेख है। यह गुप्त काल का सर्वाधिक लोकप्रिय अवतार था । चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने विष्णु पद पर्वत पर 'गरुड़ ध्वज' की स्थापना की।
शैव धर्म:
गुप्त काल में शैव धर्म भी अत्यंत महत्वपूर्ण धर्म था। दो गुप्त शासको कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त के नाम कार्तिकेय (शिव के पुत्र) के नाम पर ही है। कुमार गुप्त ने मयूर की आकृति वाले सिक्के जबकि स्कंदगुप्त ने बैल की आकृति वाले सिक्के चलवाए। गुप्त काल में ही अर्धनारीश्वर के रूप में शिव की कल्पना की गई तथा शिव और पार्वती की संयुक्त मूर्तियां बनाई गई। यहां पार्वती शिव की शक्ति की प्रतीक है। गुप्त काल में हरिहर के रूप में शिव और विष्णु को एक साथ दर्शाया गया। इसी प्रकार त्रिमूर्ति के अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा प्रारंभ हुई।
सूर्य पूजा:
गुप्त काल में सूर्य पूजा का भी उल्लेख मिलता है। मंदसौर शिलालेख के प्रारंभिक श्लोक में सूर्य की उपासना की गई है। इसी प्रकार स्कंदगुप्त के काल का इंदौर ताम्रलेख सूर्य पूजा से प्रारंभ होता है।अभिलेखों में सूर्य के विभिन्न नाम मिलते हैं जैसे- लोकार्क, भाष्कर ,आदित्य, वरुणस्वामी इत्यादि।
बौद्ध धर्म:
गुप्त काल में बौद्ध धर्म भी विकसित अवस्था में था। फाह्यान के अनुसार इस समय कश्मीर, अफगानिस्तान और पंजाब बौद्ध धर्म के केंद्र थे। बोधगया भी बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था जहां लंका के बौद्ध यात्रियों के लिए विहार बनवाया गया था। पाटलिपुत्र , मथुरा , कौशांबी और सारनाथ भी बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध केंद्र थे। कुमारगुप्त ने नालंदा के प्रसिद्ध बौद्ध विहार की स्थापना करवाई। फाह्यान के अनुसार पूर्वी भारत के प्रसिद्ध बौद्ध नगर वैशाली, श्रावस्ती और कपिलवस्तु गुप्त युग में समृद्ध नहीं थे । गुप्त काल में कई प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य का उल्लेख है जिसमें आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और मैत्रेयनाथ प्रमुख थे। दिङ्नाथ तर्कशास्त्र मत के प्रणेता थे। योगाचार दर्शन का गुप्त काल में अत्यधिक विकास हुआ।
जैन धर्म:
गुप्त काल में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था। इस समय जैन ग्रन्थों पर भाष्य और टिकाएं लिखी गई। आचार्य सिद्धसेन ने न्यायवार्ता की रचना की जिससे जैन दर्शन और न्याय दर्शन के विकास में सहयोग मिला। गुप्त युग में कदम्ब और गंग राजाओं ने जैन धर्म को आश्रय दिया। कुमार गुप्त प्रथम के उदयगिरि लेख से पता चलता है कि शंकर नामक व्यक्ति ने पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। मथुरा और बल्लभी श्वेतांबर जैन धर्म के केंद्र थे। जबकि बंगाल में पुंडरवर्धन दिगंबर संप्रदाय का केंद्र था।
गुप्त काल: कला एवं साहित्य
कला और साहित्य की दृष्टि से गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।गुप्त काल में ही मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ। ये मंदिर नागर शैली के हैं।
प्रमुख गुप्तकालीन मंदिर निम्नलिखित है-
1:भूमरा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) का शिव मंदिर।
2: नचना कुठार ( मध्य प्रदेश) पार्वती मंदिर।
3: भीतरगांव (कानपुर उत्तर प्रदेश) का मंदिर।
4: सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर।
5: उदयगिरि (विदिशा) का विष्णु मंदिर।
गुप्त कालीन मंदिर छोटी-छोटी ईंटों एवं पत्थरों से बनाए जाते थे। परंतु कानपुर का भीतरगांव का मंदिर तथा सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर केवल ईंटों से ही निर्मित है। गुप्त काल का सर्वोत्कृष्ट मंदिर देवगढ़ का दशावतार मंदिर है ।इसमें 12 मीटर ऊंचा एक शिखर है जो भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर का पहला उदाहरण है।
बौद्ध स्तूप -
गुप्त काल के बौद्ध स्तूपों में सारनाथ का धमेख स्तूप प्रसिद्ध है। यह ईंटों का बना है इसका आधार अन्य स्तूपों के समान वर्गाकार न होकर गोलाकार है।
ब्राह्मण गुहा मंदिर -
इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उदयगिरि का मंदिर है। इसमें विष्णु के वाराह अवतार की विशाल मूर्ति उत्कीर्ण है। उदयगिरि गुहा मंदिर का निर्माण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के सेनापति वीरसेन ने करवाया था।
बौद्ध गुहा मंदिर-
इसके प्रमुख उदाहरण अजंता तथा बाघ की गुफाएं हैं। अजंता की गुफा संख्या 16, 17 और 19 गुप्तकालीन मानी जाती हैं। इनमें मुख्यतः बौद्ध धर्म के महायान शाखा से संबंधित चित्र हैं। बाघ की गुफाओं में भी बौद्ध धर्म से संबंधित चित्रकारियां मिलती हैं।
मूर्ति कला -
गुप्तकालीन मूर्तियों में कुषाण काल की मूर्तियों की तरह नग्नता नहीं है। यहां की मूर्तियों में सुसज्जित प्रभामंडल बनाए गए हैं जबकि कुषाण कालीन मूर्तियों में प्रभामंडल सादा था। गुप्तकालीन मूर्तियों में देवगढ़ से प्राप्त विष्णु की प्रतिमा अत्यंत सुंदर है।
गुप्तकालीन बुद्ध की मूर्तियों में सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति तथा मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति अत्यंत प्रसिद्ध है। भागलपुर के निकट सुल्तानगंज से 2 मीटर से भी ऊंची बुद्ध की एक खड़ी ताम्र मूर्ति पाई गई है, जो इस समय बर्मिंघम संग्रहालय में सुरक्षित है।
चित्रकला -
वात्स्यायन के कामसूत्र में चित्रकला की गणना 64 कलाओं में की गई है। गुप्त चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अजंता और बाघ की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं।
अजंता की चित्रकला:
अजंता की गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित है। इसमें पहले 29 गुफाओं में चित्र बने थे परंतु अब केवल 7 गुफाओं(1,2,9,10,16,17,19) के चित्र अवशिष्ट हैं। इसमें 16, 17, 19 गुप्तकालीन है। अजंता की गुफाओं का निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी तक किया गया था। अजंता के चित्र मुख्यत:बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से संबंधित हैं।
बाघ की चित्रकला:
ग्वालियर के समीप धार जिले में बाघ नामक स्थान पर ये गुफाएं बनाई गई थी। इन गुफाओं की संख्या 9 है। अजंता के चित्रों के विपरीत बाघ के चित्र मनुष्य के लौकिक जीवन से भी संबंधित हैं।
साहित्य-
गुप्त युग में साहित्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। पुराणों के वर्तमान स्वरूप की रचना इसी काल में हुई। अनेक स्मृतियां और सूत्रों पर भाष्य लिखे गए। अनेक पुराणों तथा रामायण एवं महाभारत को इसी समय अंतिम रूप दिया गया। इस समय स्मृतियां जैसे- नारद,बृहस्पति, विष्णु, कात्यायन, पाराशर आदि की रचना हुई। गुप्तकालीन साहित्यिक कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास है, इन्हें भारत का शेक्सपियर कहा जाता है । कालिदास की प्रमुख रचनाओं को नाटक, महाकाव्य और खंडकाव्य में बांटा जाता है।
1. महाकाव्य
रघुवंशम्: यह एक महाकाव्य है, जिसमें सूर्यवंश के राजाओं की गाथा का वर्णन किया गया है।
कुमारसंभवम्: इसमें पार्वती और शिव के विवाह और उनके पुत्र कुमार कार्तिकेय की उत्पत्ति का वर्णन है।
2. नाटक:
अभिज्ञान शाकुंतलम्: कालिदास का सबसे प्रसिद्ध नाटक, जिसमें राजा दुष्यन्त और शकुंतला की प्रेम कथा का वर्णन है।
विक्रमोर्वशीयम्: इसमें राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रेम कथा को प्रस्तुत किया गया है।
मालविकाग्निमित्रम्: यह नाटक राजा अग्निमित्र और मालविका की प्रेम कथा पर आधारित है।
3. खंडकाव्य:
मेघदूतम्: यह खंडकाव्य एक यक्ष द्वारा बादल के माध्यम से अपनी प्रिय पत्नी को संदेश भेजने की कथा है।
ऋतुसंहार: इसमें छः ऋतुओं का सुंदर वर्णन किया गया है।
अन्य लेखकों की रचनाएं:
गुप्त काल का एकमात्र दु:खान्त नाटक मृच्छकटिकम है। इसके लेखक शूद्रक हैं। मुद्राराक्षस की रचना विशाखदत्त ने की। इसमें चाणक्य की योजनाओं का वर्णन है। इसके अलावा विशाखदत्त ने देवीचंद्रगुप्तम नामक नाटक की रचना की। इसी तरह अमर सिंह ने संस्कृत में अमरकोश की। कामसूत्र के लेखक वात्स्यायन है। विश्व प्रसिद्ध पंचतंत्र नामक ग्रंथ के लेखक विष्णु शर्मा है। इस ग्रंथ का अनुवाद 50 से अधिक भाषाओं में किया जा चुका है। इसी प्रकार नीतिसार की रचना कामंदक ने की।
गुप्त काल: विज्ञान एवं तकनीक
गुप्त युग में विज्ञान एवं तकनीक का समुचित विकास हुआ। इस काल के प्रमुख गणितज्ञ, ज्योतिष विद्या में भी निपुण थे। अतः इन दोनों शाखाओं का समुचित विकास हुआ। इस समय के प्रमुख विद्वान निम्नलिखित थे -
आर्यभट्ट:
ये पटना के निवासी थे। इनका जन्म 499 ईस्वी में हुआ था। इन्होंने ज्योतिष को गणित से अलग शास्त्र माना तथा दशमलव प्रणाली का विकास किया। इन्होंने ही सर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है तथा इसकी छाया चंद्रमा पर पढ़ने के कारण ग्रहण होता है। इस प्रकार सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण पड़ने के वास्तविक कारणों पर प्रकाश डाला।
प्रमुख रचनाएं:
1. आर्यभटीय-
यह उनकी मुख्य कृति है, जो चार अध्यायों में विभाजित है:
1. दशगीतिका: गणित और खगोल विज्ञान का सार।
2. गणितपाद: गणितीय सिद्धांत और सूत्र।
3. कालक्रियापाद: समय मापन और खगोलीय गणनाएं।
4. गोलपाद: खगोलशास्त्र से संबंधित सिद्धांत।
2. आर्यसिद्धांत-
यह उनकी दूसरी प्रमुख कृति मानी जाती है, जो खगोल विज्ञान और ज्योतिष पर आधारित है। हालांकि यह ग्रंथ अब पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसके अंश बाद के विद्वानों के कार्यों में पाए जाते हैं।
आर्यभट्ट के प्रमुख योगदान:
1. गणित में योगदान
-शून्य 0 की अवधारणा का प्रारंभिक उपयोग।
--π (पाई) का सटीक मान (3.14)।
-- त्रिकोणमिति में "साइन" और "कोसाइन" का उपयोग।
--बीजगणित और संख्या सिद्धांत का विकास।
2. खगोल विज्ञान में योगदान-
--पृथ्वी को गोल बताया और इसके घूमने की धारणा प्रस्तुत की।
--ग्रहण (सूर्य और चंद्र) की वैज्ञानिक व्याख्या दी।
--पृथ्वी और आकाशीय पिंडों की गति का सटीक वर्णन।
विरासत-
आर्यभट्ट की उपलब्धियां न केवल भारत, बल्कि विश्व विज्ञान के लिए महत्वपूर्ण हैं। उनके नाम पर भारत के पहले उपग्रह का नाम "आर्यभट्ट" रखा गया। उनका कार्य गणित, खगोलशास्त्र और विज्ञान की दिशा में एक मील का पत्थर है।
भाष्कर प्रथम (600ई.)-
भारत के एक प्राचीन गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। वे आर्यभट्ट के अनुयायी और उनकी शिक्षाओं के प्रचारक माने जाते हैं। भास्कर प्रथम का योगदान गणित और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने आर्यभट्ट के कार्यों की व्याख्या की और अपनी कृतियों में खगोलशास्त्र को सरल तरीके से प्रस्तुत किया।
प्रमुख कृतियां-
1- महाभास्करीयम्:
यह एक खगोलशास्त्रीय ग्रंथ है जिसमें ग्रहों की गति, ग्रहण की गणना, और खगोलीय घटनाओं का वर्णन है।
इसमें त्रिकोणमिति और गणित के कई सिद्धांतों की व्याख्या की गई है।
2- लघुभास्करीयम्:
यह उनकी एक और प्रमुख रचना है, जिसमें खगोलशास्त्र के सिद्धांतों को संक्षेप में समझाया गया है।
यह ग्रंथ उन विद्यार्थियों के लिए उपयोगी था जो खगोल विज्ञान का अध्ययन करना चाहते थे।
3- आर्यभट्ट की कृतियों पर टीका:
भास्कर प्रथम ने आर्यभट्ट की रचना "आर्यभटीय" पर व्याख्या लिखी।
उन्होंने आर्यभट्ट के दशमलव प्रणाली और खगोलीय गणनाओं की व्याख्या की।
वाराहमिहिर (550 ई.)-
प्राचीन भारत के महान खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य थे। वे उज्जैन (मध्य प्रदेश) के निवासी थे, जो उस समय भारत में खगोल विज्ञान और ज्योतिष का प्रमुख केंद्र था। वराहमिहिर गुप्तकालीन भारत की वैज्ञानिक उन्नति के प्रमुख स्तंभों में से एक थे।
प्रमुख रचनाएं:
वराहमिहिर की कृतियां मुख्यतः ज्योतिष, खगोलशास्त्र और प्राकृतिक विज्ञान से संबंधित हैं। उनकी तीन प्रमुख रचनाएं हैं-
1. बृहत्संहिता-
यह उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है।
इसमें 100 अध्याय हैं, जो खगोल विज्ञान, ज्योतिष, भूगर्भशास्त्र, वास्तुशास्त्र, कृषि, मौसम विज्ञान, और प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों पर आधारित हैं।
इसमें ग्रहण, वर्षा, भूकंप, और मौसम की भविष्यवाणी के नियम दिए गए हैं।
2. पंचसिद्धांतिका-
यह वराहमिहिर का खगोलशास्त्रीय ग्रंथ है।
इसमें पांच प्राचीन खगोलीय सिद्धांतों (सिद्धांतों) का वर्णन है- सूर्य सिद्धांत, पितामह सिद्धांत, वशिष्ठ सिद्धांत, पौलिश सिद्धांत, रोमक सिद्धांत।
यह ग्रंथ खगोलीय गणनाओं और ग्रहों की गति का सटीक वर्णन करता है।
3. बृहत्जातक-
यह ज्योतिष शास्त्र पर आधारित है और इसे "ज्योतिष का बाइबल" कहा जाता है।
इसमें कुंडली निर्माण, ग्रहों के प्रभाव, और भविष्यवाणी के सिद्धांतों का वर्णन है।
ब्रह्मगुप्त ( 598 ई.)-
इन्होंने ब्रह्म सिद्धांत की रचना की तथा सर्वप्रथम यह बताया कि पृथ्वी सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इनका जन्म उज्जैन में हुआ था।
अन्य विद्वान -
गुप्त काल में अनेक प्रसिद्ध चिकित्सक भी हुए। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में आयुर्वेद के विद्वान और चिकित्सक धनवंतरी थे और रसायन विज्ञान के विशेषज्ञ नागार्जुन थे।