गुप्तोत्तर कालीन सामाजिक परिवर्तन
गुप्तोत्तर काल सामाजिक परिवर्तनों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस समय का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन जिसने समाज के अन्य सभी पक्षों को भी प्रभावित किया, वह है- सामंतवाद। भूमि दान के फलस्वरूप एक नई जाति कायस्थ का उदय हुआ। कृषकों के रूप में शूद्रों का रूपांतरण और वैश्यों के स्तर में शूद्र स्तर तक गिरावट से वर्ण व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस युग का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन जातियों का प्रगुणन था, जिसने चारों वर्णों को प्रभावित किया।
सामंतवाद:
गुप्तोत्तर काल में समाज में एक विशिष्ट वर्ग का उदय हुआ जिसे सामंत कहा जाता है। भारत में सामंतवाद के बीज शक-कुषाण काल में ही दिखाई पड़ने लगते हैं, परंतु इसका पूर्ण विकास गुप्तोत्तर काल अथवा पूर्व मध्यकाल में ही हुआ। इस कल की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियों ने सामंतवाद के उदय और विकास में सहायता प्रदान की ।
द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में मध्य एशियाई आक्रमणों के फलस्वरूप केंद्रीय सत्ता निर्बल पड़ गई जिससे समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया जिनके ऊपर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा।फलस्वरुप उत्तर भारत में छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। इससे सामंती प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। सामंतवाद के विकास में प्राचीन भारतीय 'धर्म विजय' की अवधारणा का भी योगदान रहा। प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के बाद उनके राज्य वापस कर दिए थे। इस विजय को धर्म विजय कहा गया है।
सामंतवाद के विकास में तत्कालीन शासको द्वारा प्रदत्त भूमि तथा ग्राम अनुदानों का भी प्रमुख योगदान रहा है । भूमि दान का पहला अभिलेखीय प्रमाण प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में सातवाहन अभिलेख में प्राप्त होता है। रामशरण शर्मा का मानना है कि भारत में सामंतवाद का उदय राजाओं द्वारा ब्राह्मणों तथा प्रशासनिक और सैनिक अधिकारियों को भूमि तथा ग्राम दान में दिए जाने के कारण हुआ।
सामंतवाद शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख भारतीय परिप्रेक्ष्य में आर. एस .शर्मा महोदय ने अपनी पुस्तक 'भारतीय सामंतवाद' में किया है।डी.डी. कौशांबी ने इसकी प्रकृति की चर्चा करते हुए ऊपर से सामंतवाद तथा नीचे से सामंतवाद की अवधारणा प्रस्तुत की है। ऊपर से सामंतवाद से तात्पर्य है कि राजाओं द्वारा भूमि अनुदान के फलस्वरूप उत्पन्न सामंती व्यवस्था जबकि नीचे से सामंतवाद का अर्थ है कि सामंतों द्वारा बिना राजा की अनुमति के अनुदान में दी गई भूमि के फलस्वरूप उत्पन्न उपसामंती व्यवस्था।
गुप्तोत्तर काल: वर्ण व्यवस्था
गुप्तोत्तर काल में परंपरागत वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी जिसमें ब्राह्मण का स्थान सबसे ऊपर था। परंतु बाह्य आक्रमणों से उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल तथा आर्थिक विषमताओं ने ब्राह्मणों को अन्य व्यवसाय अपनाने पर मजबूर किया। इसका समाधान स्मृतिकारों ने 'आपदधर्म' के रूप में किया है। इसका आशय है की विपत्ति के समय में अपने धर्म के इतर कार्य करना।
गुप्तोत्तर युग की एक महत्वपूर्ण घटना राजपूत का अभ्युदय है। राजपूत शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'एनल्स एंड हिस्ट्री आफ राजस्थान' में किया है। 12वीं शताब्दी तक राजपूतों की 36 जातियां प्रसिद्ध हो गई थी जैसे- चालुक्य, परमार, चौहान, प्रतिहार, गुहिल,चंदेल, कछवाहा इत्यादि। ये सभी क्षत्रिय कहलन लगे। परंतु इस समय कई अक्षत्रिय राजाओं का भी उल्लेख है। व्हेनसांग ने मतिपुर और सिंध देश के राजा को शूद्र कहा है।
तीसरा वर्ग वैश्य था। पाराशर ने सूद पर रूपया उधर देना वैश्यों का मुख्य व्यवसाय बताया है। गुप्तोत्तर काल में व्यापार में गिरावट आई, इससे वैश्यों की सामाजिक स्थिति पहले से निम्न हो गई तथा उनके स्थान शूद्रों के समान हो गया। अधिकांश शूद्र वैष्णव तथा जैन धर्म के अनुयाई थे।
गुप्तोत्तर कालीन सामाजिक परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन था- शूद्रों की सामाजिक स्थिति में सुधार। शूद्रों के लिए सेवा के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शिल्प उपयुक्त व्यवसाय बताए गए हैं।
कायस्थ:
कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। गुप्तोत्तर काल में ओशनस स्मृति में ये एक जाति के रूप में दिखाई पड़ते हैं। न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का काम 'कराठीक' करते थे। ये लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे। जैसे- कायस्थ, कराठीक, पुस्तपाल, अक्षपतलिक, लेखक, इत्यादि। किंतु कालांतर में ये सभी कायस्थ वर्ग में समाविष्ट हो गए। विभिन्न स्थानों के आधार पर कायस्थों की उपजातियां भी बन गई जैसे- बंगाल से आए हुए गौड़ कायस्थ, वल्लभीय कायस्थ,माथुर, श्रीवास्तव, निगम आदि।
अंतरजातीय विवाह:
गुप्तोत्तर काल में अंतरजातीय विवाहों को हतोत्साहित करने के लिए स्मृतिकारों ने व्यवस्था दी कि अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान की जाति माता पर आधारित होगी, पिता पर नहीं।
अस्पृश्यता:
गुप्तोत्तर काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या में वृद्धि हुई। इस काल में चांडालों के अतिरिक्त सात अन्य जातियों को भी अस्पृश्य माना गया। जैसे - रजक (धोबी), चर्मकार (चमार), नट, वरुण (चटाई, टोकरी आदि बनाने वाले), कैवर्त(मछुआरे), धीवर ,भेद (आदिवासी) तथा भिल्ल।
स्त्रियों की स्थिति:
इस काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। इस काल में लड़की का आदर्श विवाह 8 वर्ष का माना जाता था। आठ साल की लड़की को गौरी तथा दस साल की लड़की को कन्या कहा जाता था। अनेक स्मृतिकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की है।
गुप्तोत्तर कालीन: आर्थिक दशा
गुप्तोत्तर काल में भी कृषि ही भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी। गुप्तोत्तर काल में सिंचाई के साधनों में वृद्धि हुई। तालाब खुदवाना पुण्य कार्य समझा जाता था । राजतरंगिणी में खूया नामक कर्मचारी (इंजीनियर) का उल्लेख है जिसने झेलम नदी के तट पर बांध बनवाया और नहर निकलवाई। परमार शासक भोज ने भोज सागर का निर्माण करवाया।सिंचाई में रहट का प्रयोग भी होता था।
व्यापार:
सामंतवादी व्यवस्था के उद्भव एवं गांवों के आत्मनिर्भर होने के कारण गुप्तोत्तर काल में व्यापार में ह्रास हुआ।दैनिक उपभोग की वस्तुएं जैसे-नमक, मसाले, धान,लोहा, कपड़े आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जाती थी। बंगाल मलमल, पान, सुपारी तथा सन के लिए विख्यात था। कलिंग में धान के कुछ अच्छी किस्में होती थी। मालवा गन्ने और नील के लिए प्रसिद्ध था।
समुद्री व्यापार में अरब व्यापारियों का बोलबाला था। 11वीं शताब्दी में कुतुबनुमा के आविष्कार के कारण समुद्री यात्रा में बहुत सुविधा हुई। पश्चिमी तट के मुख्य बंदरगाह देवल, थाना, खंभात, भड़ौच, सोमनाथ आदि थे।
उद्योग:
गुप्तोत्तर कालीन स्मृतियों में शिल्प और उद्योग शूद्र के लिए आवश्यक व्यवसाय माने गए हैं।इस समय सूत बुनने तथा वस्त्र निर्माण से लेकर धातु, हाथी दांत, लकड़ी तथा चमड़े आदि शिल्पो का उल्लेख है। पौधों के रेशों से बना हुआ कपड़ा दुकूल कहलाता था। भड़ौच के बने हुए वस्त्र इतने प्रसिद्ध थे कि वे 'वरोज' नाम से विख्यात थे। खंभात में बने हुए वस्त्र खंभायात के नाम से जाने जाते थे। हाथी दांत का आयात जंजीबर (इथोपिया) से होता था।
मुद्रा:
गुप्तोत्तर काल में व्यापार की गिरावट का प्रभाव मुद्राओं पर भी पड़ा। जहां कुषाण और गुप्त काल में सिक्कों का प्रसार अधिक था,वही इस काल के बहुत कम सिक्के प्राप्त हुए हैं। पाल और सेन राजाओं में केवल देवपाल के 6 सोने के सिक्के मिले हैं और गुजरात के चालुक्यों में केवल जयसिंह सिद्धराज का एक सोने का सिक्का मिला है। साधारण लेनदेन और व्यापार कौड़ियों के माध्यम से होता था,जिन्हें प्रतिहार अभिलेखों में कपर्दक कहा गया है।