स्थानेश्वर का पुष्यभूति वंश नोट्स

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 स्थानेश्वर का पुष्यभूति वंश नोट्स 


स्थानेश्वर का पुष्यभूति वंश नोट्स


स्थानेश्वर का पुष्यभूति वंश, जिसे वर्धन वंश भी कहा जाता है।प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण राजवंश था। यह वंश छठी और सातवीं शताब्दी के बीच हरियाणा के स्थानेश्वर (वर्तमान थानेसर) क्षेत्र में सत्ता में था। इस वंश की ख्याति राजा हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान चरम पर पहुँची, जो इस वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक थे।


स्थानेश्वर वंश का उद्भव:


पुष्यभूति वंश की स्थापना पुष्यभूति नामक एक राजा ने की थी, जो स्थानेश्वर के राजा थे। प्रारंभ में, यह वंश गुप्त साम्राज्य का अधीनस्थ था, लेकिन धीरे-धीरे स्वतंत्र हो गया।


पुष्यभूति वंश का इतिहास हमें साहित्य, पुरातत्व, तथा विदेशी विवरण से ज्ञात होता है इसका विवेचन निम्नलिखित है-


हर्षचरित् -

 

इसका लेखक बाणभट्ट है जो हर्ष का दरबारी कवि था। ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का यह प्रथम सफल प्रयास था। इसमें कुल आठ भाग है। प्रथम तीन में बाण ने अपनी आत्मकथा लिखी है तथा शेष पांच में हर्षवर्धन का जीवनचरित् लिखा गया है। इससे हर्ष के पूर्वजों के बारे में जानकारी मिलती है। इस पुस्तक से हर्ष के प्रारंभिक जीवन, राज्यारोहण, सैनिक अभियान के साथ ही साथ हर्ष कालीन राजनीति एवं संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है।


कादंबरी -


यह भी बाणभट्ट की कृति है इसे संस्कृत साहित्य का श्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। इसके अध्ययन से हमें हर्ष कालीन सामाजिक एवं धार्मिक दशा का ज्ञान प्राप्त होता है।


आर्यमंजुश्रीमूलकल्प - 

      

यह एक प्रसिद्ध महायान बौद्ध ग्रंथ है। इसमें ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी ईस्वी तक का प्राचीन भारत का इतिहास वर्णित है। इसमें हर्ष के लिए 'ह' शब्द का प्रयोग किया गया है।


हर्ष के ग्रंथ -


 हर्ष को स्वयं तीन नाटकों को लिखने का श्रेय प्राप्त है - 


1- प्रियदर्शिका: 

यह चार अंको का नाटक है जिसमें वत्सराज उदयन के अंत:पुर की प्रणय कथा का वर्णन है।


2- रत्नावली- 


इसमें चार अंक है। यह नाटक वत्सराज उदयन तथा उसकी रानी वासवदत्ता की परिचारिका नागरिका की प्रणय कथा का वर्णन है।


3- नागानंद: 


यह बौद्ध धर्म से प्रभावित रचना है। इसमें आठ अंक हैं।


इस वंश में नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन एवं प्रभाकर वर्धन शासक हुए। प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन एवं हर्षवर्धन तथा एक पुत्री राज्यश्री थी। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि वंश के शासक गृह वर्मन के साथ हुआ। मालवा के शासक देव गुप्त ने बंगाल के शासक शशांक के साथ मिलकर कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और उनकी पत्नी राज्यश्री को बंदी बना लिया। इस घटना को सुनकर राज्यवर्धन देवगुप्त और शशांक से बदला लेने के लिए चल पड़ा। उसे देवगुप्त को पराजित करने में सफलता मिली परन्तु शशांक ने धोखे से उसकी हत्या कर दी। इन्हीं परिस्थितियों में हर्ष स्थानेश्वर की गद्दी पर बैठा।


स्थानेश्वर का पुष्यभूति वंश-


हर्षवर्धन (606-647ई.)


सत्ता प्राप्त करने के बाद हर्ष का पहला कार्य अपने भाई के हत्यारे शशांक से बदला लेना तथा बहन राज्यश्री को उसके कैद से आजाद करवाना था। राज्यश्री की रक्षा करके हर्षवर्धन कन्नौज लौटे और उन्होंने अपनी राजधानी स्थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित कर ली।हर्ष ने न केवल शशांक से बदला लिया अब अपितु अपनी शक्ति का प्रसार उत्तरी भारत के अन्य राज्यों में भी किया। व्हेनसांग के अनुसार उसने उत्तरी भारत के पांच देशों को अपने अधीन कर लिया। ये पांच देश प्रदेश थे- पंजाब, कन्नौज, बंगाल, मिथिला और उड़ीसा। बाणभट्ट ने इसमें सिंध, हिमप्रदेश और नेपाल को भी सम्मिलित किया है। हर्ष ने वल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।


उत्तरी भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद हर्ष दक्षिण की ओर उन्मुख हुआ। इस समय दक्षिण में वातापी का प्रसिद्ध शासक पुलकेशिन द्वितीय शासन कर रहा था। उसके ऐहोल अभिलेख से पता चलता है कि उसने हर्षवर्धन को पराजित किया।


हर्ष को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा जाता है, लेकिन वह न तो कट्टर हिंदू था और न सारे देश का शासक। हर्ष स्वयं विद्वान था उसके दरबार में भी अनेक प्रसिद्ध विद्वान निवास करते थे। जैसे- बाणभट्ट, मयूर आदि।


ह्वेनसांग (629-645ई.)


यह चीनी यात्री था, जो बौद्ध ग्रन्थों का संकलन करने के लिए सातवीं सदी में भारत आया और लगभग 15 वर्ष इस देश में रहा। उसने अपनी यात्रा संस्मरण को एक पुस्तक के रूप में 'सी-यू-की' नाम से संकलित किया। उसने भारत को 'इन-टु' नाम दिया।  'इन-टु' अर्थात चंद्र की कला (अर्द्ध चंद्राकार) के समान भारत की भौगोलिक स्थिति के कारण इस देश को चीनियों ने यह नाम दिया।


व्हेनसांग के अन्य नाम 'युवानच्वांग', 'श्वानचांग', 'शाक्यमुनि' एवं 'यात्रियों में राजकुमार' थे। व्हेनसॉन्ग ने भारत के विषय में निम्नलिखित वर्णन किया है - 


1: उसने हर्ष को 'शिलादित्य' के नाम से संबोधित किया है।

2: उसने सिंध एवं मतिपुर के राजाओं को शूद्र बताया है।

3: उसने शूद्रों को कृषक कहा है। 

4: उसके समय में नालंदा के प्राचार्य शीलभद्र थे।

5: उसके अनुसार इस समय सिंचाई घटी यंत्र (रहट) द्वारा होती थी।

6: उसके अनुसार भारत के घोड़े अरब, ईरान एवं कंबोज से आते थे।

7: उसने कन्नौज की धर्म सभा और प्रयाग की महामोक्षपरिषद का भी उल्लेख किया है।


नालंदा विश्वविद्यालय - 


ह्वेनसांग ने इस विश्वविद्यालय का विस्तृत वर्णन किया है। उसके समय में वहां के प्राचार्य शीलभद्र थे। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु एक कड़ी परीक्षा आयोजित की जाती थी जिसमें करीब 10 प्रतिशत विद्यार्थी ही सफल हो पाते थे।

     

ह्वेनसांग ने स्वयं 18 माह नालन्दा विश्वविद्यालय में रहकर अध्ययन किया था। उसके अनुसार यहां लगभग 10 हजार छात्र शिक्षा प्राप्त करते थे।


कन्नौज की धर्म सभा - 


हर्ष समय-समय पर धार्मिक प्रचार के लिए बड़ी-बड़ी सभाएं आयोजित करता था। ऐसी ही एक सभा का आयोजन कन्नौज में हुआ जिसकी अध्यक्षता ह्वेनसांग ने की। ब्राह्मणों ने इसमें उत्पात मचा दिया इसलिए हर्ष ने 500 ब्राह्मणों को देश से निर्वासित कर दिया।


प्रयाग की महामोक्षपरिषद- 


हर्ष हर 5वें वर्ष दान के लिए एक बड़ी सभा बुलाया करता था। जिसे मोक्षपरिषद कहा जाता था। इसका 6वाँ अधिवेशन 635 ई. में प्रयाग में हुआ। इसमें ह्वेनसांग भी भाग लिया। राजतरंगिणी से पता चलता है कि बौद्ध धर्म अपनाने से पहले हर्ष शैव।


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