कश्मीर का लोहार वंश नोट्स
कश्मीर का लोहार वंश एक ऐतिहासिक राजवंश था, जिसने मध्यकाल में कश्मीर और आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। यह राजवंश कश्मीर के इतिहास में अपने सांस्कृतिक, राजनीतिक, और सैन्य योगदान के लिए जाना जाता है। लोहार वंश का उदय मुख्यतः उत्तरी भारत और कश्मीर के क्षेत्रों में हुआ और यह वंश कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी सीमांत तक फैला था।
प्रमुख तथ्य:
इस वंश का संस्थापक संग्रामराज (1003 से 1028 ई.) था। इसने अपने मंत्री तुंग को भटिंडा के शाही शासक त्रिलोचन पाल के ओर से महमूद गजनवी से लड़ने के लिए भेजा।
लोहार वंश के राजाओं में हर्ष का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि वह स्वयं विद्वान, कवि एवं कई भाषाओं तथा विधाओं का ज्ञाता था।कल्हण उसका आश्रित कवि था।
हर्ष में सद्गुणों एवं दुर्गुणों का विचित्र सम्मिश्रण था। वह अपने विद्वता के कारण दूसरे राज्यों में भी प्रसिद्ध हुआ परंतु शासक के रूप में वह क्रूर एवं अत्याचारी था। कल्हण उसके अत्याचारों का वर्णन करता है।
हर्ष को 'कश्मीर का नीरो' भी कहा जाता था।
वह सामाजिक सुधारो एवं फैशन के नवीन मापदंडों का संस्थापक था। फिजूलखर्ची तथा आंतरिक विद्रोह के कारण जब उसका खजाना खाली हो गया तो उसने राजकोष की पूर्ति के लिए मंदिरों को लूटा तथा अपनी प्रजा पर अनेक कर लगाए।
उसके समय में कश्मीर में भयंकर अकाल पड़ा फिर भी उसने दमनपूर्ण करों को वापस नहीं लिया।
इसके अत्याचारपूर्ण कार्यों से त्रस्त होकर दो भाइयों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों ने श्रीनगर में घुसकर राजमहल में आग लगा दी एवं हर्ष के पुत्र भोज की हत्या कर डाली । विद्रोहियों का मुकाबला करते हुए हर्ष भी 1101 ई . में मारा गया।
जय सिंह (1128 से 1159 ई.)इस वंश का अंतिम शासक था। कल्हण की राजतरंगिणी का विवरण जयसिंह के शासन के समय ही समाप्त हो जाता है।
इस काल में कश्मीर में धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति हुई। कश्मीर अपने विशिष्ट शैव धर्म एवं दर्शन के लिए प्रसिद्ध था।
11वीं शताब्दी में क्षेमेंद्र ने वृहदकथामंजरी और सोमदेव ने कथा सरितसागर की रचना की ।इसी शताब्दी के अंत में कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की जिसका प्राचीन ऐतिहासिक साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।